Thursday, September 25, 2008

समीर लाल की कहानी--आखिर बेटा हूं तेरा

समीर लाल का नाम किसी परिचय का मुहताज नहीं। ब्लॉगिंग करने वाला कोई भी शख्स इनके नाम से अनजान नहीं। एक बेहतरीन लेखक होने के साथ-साथ समीर जी एक अच्छे इंसान भी हैं। वो न केवल अच्छा लिखते हैं बल्कि दूसरों को लिखने के लिए लगातार प्रोत्साहित करते रहते हैं। उनकी ये कहानी वैसे तो उनके ब्लॉग www.udantashtari.blogspot.com में काफी पहले छप चुकी है लेकिन इतनी अच्छी और संवेदनाओं से लबरेज कहानी है कि इसे दोबारा यहां प्रकाशित किया जा रहा है। उम्मीद है आपको पसंद आएगी।

सरौता बाई नाम था उसका. सुबह सुबह ६ बजे आकर कुंडी खटखटाती थी. तब से उसका जो दिन शुरु होता कि ६ घर निपटाते शाम के ६ बजते. कपड़ा, भाडू, पौंछा, बरतन और कभी कभी मालकिनों की मालिश. बात कम ही करती थी.पता चला कि उसका पति शराब पी पी कर मर गया कुछ साल पहले.


पास ही के एक टोला में छोटी सी कोठरिया लेकर रहती थी १० रुपया किराये पर.एक बेटा था बसुआ. उसे पढ़ा रही थी. उसका पूरा जीवन बसुआ के इर्द गिर्द ही घूमता. वो उसे बड़ा आदमी बनाना चाहती थी.हमें ७.३० बजे दफ्तर के निकलना होता था. कई बार उससे कहा कि ५.३० बजे आ जाया कर तो हमारे निकलते तक सब काम निपट जायेंगे मगर वो ६ बजे के पहले कभी न आ पाती. उसे ५ बजे बसुआ को उठाकर चाय नाश्ता देना होता था. फिर उसके लिये दोपहर का भोजन बनाकर घर से निकलती ताकि जब वो १२ बजे स्कूल से लौटे तो खाना खा ले.फिर रात में तो गरम गरम सामने बिठाकर ही खाना खिलाती थी. बरसात को छोड़ हर मौसम में कोशिश करके कोठरी के बाहर ही परछी में सोती थी ताकि बसुआ को देर तक पढ़ने और सोने में परेशानी न हो.


समय बीतता गया. बसुआ पढ़ता गया. सरौता बाई घूम घूम कर काम करती रही. एक दिन गुजिया लेकर आई कि बसुआ का कालिज में दाखिला हो गया है. बसुआ को स्कॉलरशिप भी मिल गई है. कालिज तो दूर था ही, तो स्कॉलरशिप के पैसे से फीस , किताब के इन्तजाम के बाद जो बच रहा, उसमें कुछ घरों से एडवान्स बटोरकर उसके लिये साईकिल लेकर दे दी. पहले दिन बसुआ अपनी माँ को छोड़ने आया था साईकिल पर बैठा कर. सरौता बाई कैरियर पर ऐसे बैठकर आई मानों कोई राजरानी मर्सडीज कार से आ रही हो. उसके चेहरे के भाव देखते ही बनते थे. बहुत खुश थी उस दिन वो.


बसुआ की प्रतिभा से वो फूली न समाती. बसुआ ने कालिज पूरा किया. एक प्राईवेट स्कूल से एम बी ए किया. फिर वो एक प्राईवेट कम्पनी में अच्छी पोजीशन पर लग गया. हर मौकों पर सरौता बाई खुश होती रही. उसकी तपस्या का फल उसे मिल रहा था. उसने अभी अपने काम नहीं छोड़े थे. एम बी ए की पढ़ाई के दौरान लिया कर्जा अभी बसुआ चुका रहा था शायद. सो सरौता बाई काम करती रही. उम्र के साथ साथ उसे खाँसी की बीमारी भी लग गई. रात रात भर खाँसती रहती.


बसुआ का साथ ही काम कर रही एक लड़की पर दिल आ गया और दोनों ने जल्द ही शादी करने का फैसला भी कर लिया, सरौता बाई भी बहुरिया आने की तैयारी में लग गई. एक दिन सरौता बाई ५.३० बजे ही आ गई. आज वो उदास दिख रही थी. आज पहली बार उसकी आँखों में आसूं थे. बहुत पूछने पर बताने लगी कि कल जब घर पर चूना गेरु करने का इन्तजाम कर रही थी बहुरिया के स्वागत के लिये, तब बसुआ ने बताया कि बहुरिया यहाँ नहीं रह पायेगी. वो बहुत पढ़ी लिखी और अच्छे घर से ताल्लुक रखती है और वो शादी के लिये इसी शर्त पर राजी हुई है कि मैं उसके साथ उनके पिता जी के घर पर ही रहूँ. वैसे, तू चिन्ता मत कर, मैं बीच बीच में आता रहूँगा मिलने.कोई भी काम हो तो फोन नम्बर भी दिया है कि इस पर फोन लगवा लेना. उसे चिन्ता लगी रहेगी. बहुत ख्याल रखता है बेचारा बसुआ. जाते जाते कह रहा था कि अब तो मेरा खर्च भी तुझको नहीं उठाना है. बसुआ पढ़ लिख गया है तो तू एकाध घर कम कर ले और हफ्ते में एक टाईम की छुट्टी भी लिया कर. अकेले के लिये कितना दौड़ेगी भागेगी आखिर तू. और अब इस उम्र भी तू पहले की तरह काम करेगी तो सोच, मुझे कितनी तकलीफ होगी. आखिर बेटा हूँ तेरा.
तब से सरौता बाई रोज ५.३० बजे आने लगी.

14 comments:

Vivek Gupta said...
This comment has been removed by the author.
Vivek Gupta said...

कहानी बहुत सुंदर है |

साधवी said...

मै तब भी इस कहानी को पढकर रोई थी और आज फिर. बहुत अच्छी कहानी है.

seema gupta said...

"oh, very emotional story to read, thanks for sharing"

Regards

संगीता पुरी said...

बहुत ही अच्छी कहानी..... पहले भी पढा था .......बहुत अच्छी लगी थी।

रंजन (Ranjan) said...

क्या कहें..

परमजीत सिहँ बाली said...

कहानी बहुत सुंदर है |

Dr. Amar Jyoti said...

बहुत ही मर्मस्पर्शी कहानी!

Udan Tashtari said...

आभार आपका, इसे यहाँ स्थान देने के लिए. शुभकामनाऐं.

ताऊ रामपुरिया said...

बहुत भावुक कहानी ! पढ़वाने के लिए आभार !

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

बच्चों की परवरिश माँ-बाप के साथ-साथ आस-पास की आबो-हवा और इर्द-गिर्द का समाज भी करता है। सरौता बाई उसे खाना पीना और पढ़ने की सुविधा जुटाने में लगी रही लेकिन संस्कार तो उसे नये समाज के मिल गये।

मार्मिक कहानी। यहाँ बाँटने का आभार।

shama said...

Kahani itne saral shabdonme likhi gayi hai...kahinbhee koyi melodrama nahi...yahi to shakti hai katha kathanki...mai itne diggaj wyaktike baareme aur kya likhun??
Ek meree kahani blogpe maujood hai..."Dayakee Drushtee Sadaahee Rakhna!" is sheershak ke antargat...kya aap meree koyi kahani aapke blogpe prakashit karna chahenge?
Mere blogpe tippaneeke liye bohot shukraguzar hun!

BrijmohanShrivastava said...

आपके तीनो ब्लॉग देखे भूख ,कथा संसार पार तो आपने दो माह में कुछ लिखा ही नहीं है /हमारा परिवार में वो न जाने क्या क्या जानकारी मांग रहा था /लिखिए श्रीवास्तव जी /

Udan Tashtari said...

bahut aabhar!!