Thursday, September 25, 2008

समीर लाल की कहानी--आखिर बेटा हूं तेरा

समीर लाल का नाम किसी परिचय का मुहताज नहीं। ब्लॉगिंग करने वाला कोई भी शख्स इनके नाम से अनजान नहीं। एक बेहतरीन लेखक होने के साथ-साथ समीर जी एक अच्छे इंसान भी हैं। वो न केवल अच्छा लिखते हैं बल्कि दूसरों को लिखने के लिए लगातार प्रोत्साहित करते रहते हैं। उनकी ये कहानी वैसे तो उनके ब्लॉग www.udantashtari.blogspot.com में काफी पहले छप चुकी है लेकिन इतनी अच्छी और संवेदनाओं से लबरेज कहानी है कि इसे दोबारा यहां प्रकाशित किया जा रहा है। उम्मीद है आपको पसंद आएगी।

सरौता बाई नाम था उसका. सुबह सुबह ६ बजे आकर कुंडी खटखटाती थी. तब से उसका जो दिन शुरु होता कि ६ घर निपटाते शाम के ६ बजते. कपड़ा, भाडू, पौंछा, बरतन और कभी कभी मालकिनों की मालिश. बात कम ही करती थी.पता चला कि उसका पति शराब पी पी कर मर गया कुछ साल पहले.


पास ही के एक टोला में छोटी सी कोठरिया लेकर रहती थी १० रुपया किराये पर.एक बेटा था बसुआ. उसे पढ़ा रही थी. उसका पूरा जीवन बसुआ के इर्द गिर्द ही घूमता. वो उसे बड़ा आदमी बनाना चाहती थी.हमें ७.३० बजे दफ्तर के निकलना होता था. कई बार उससे कहा कि ५.३० बजे आ जाया कर तो हमारे निकलते तक सब काम निपट जायेंगे मगर वो ६ बजे के पहले कभी न आ पाती. उसे ५ बजे बसुआ को उठाकर चाय नाश्ता देना होता था. फिर उसके लिये दोपहर का भोजन बनाकर घर से निकलती ताकि जब वो १२ बजे स्कूल से लौटे तो खाना खा ले.फिर रात में तो गरम गरम सामने बिठाकर ही खाना खिलाती थी. बरसात को छोड़ हर मौसम में कोशिश करके कोठरी के बाहर ही परछी में सोती थी ताकि बसुआ को देर तक पढ़ने और सोने में परेशानी न हो.


समय बीतता गया. बसुआ पढ़ता गया. सरौता बाई घूम घूम कर काम करती रही. एक दिन गुजिया लेकर आई कि बसुआ का कालिज में दाखिला हो गया है. बसुआ को स्कॉलरशिप भी मिल गई है. कालिज तो दूर था ही, तो स्कॉलरशिप के पैसे से फीस , किताब के इन्तजाम के बाद जो बच रहा, उसमें कुछ घरों से एडवान्स बटोरकर उसके लिये साईकिल लेकर दे दी. पहले दिन बसुआ अपनी माँ को छोड़ने आया था साईकिल पर बैठा कर. सरौता बाई कैरियर पर ऐसे बैठकर आई मानों कोई राजरानी मर्सडीज कार से आ रही हो. उसके चेहरे के भाव देखते ही बनते थे. बहुत खुश थी उस दिन वो.


बसुआ की प्रतिभा से वो फूली न समाती. बसुआ ने कालिज पूरा किया. एक प्राईवेट स्कूल से एम बी ए किया. फिर वो एक प्राईवेट कम्पनी में अच्छी पोजीशन पर लग गया. हर मौकों पर सरौता बाई खुश होती रही. उसकी तपस्या का फल उसे मिल रहा था. उसने अभी अपने काम नहीं छोड़े थे. एम बी ए की पढ़ाई के दौरान लिया कर्जा अभी बसुआ चुका रहा था शायद. सो सरौता बाई काम करती रही. उम्र के साथ साथ उसे खाँसी की बीमारी भी लग गई. रात रात भर खाँसती रहती.


बसुआ का साथ ही काम कर रही एक लड़की पर दिल आ गया और दोनों ने जल्द ही शादी करने का फैसला भी कर लिया, सरौता बाई भी बहुरिया आने की तैयारी में लग गई. एक दिन सरौता बाई ५.३० बजे ही आ गई. आज वो उदास दिख रही थी. आज पहली बार उसकी आँखों में आसूं थे. बहुत पूछने पर बताने लगी कि कल जब घर पर चूना गेरु करने का इन्तजाम कर रही थी बहुरिया के स्वागत के लिये, तब बसुआ ने बताया कि बहुरिया यहाँ नहीं रह पायेगी. वो बहुत पढ़ी लिखी और अच्छे घर से ताल्लुक रखती है और वो शादी के लिये इसी शर्त पर राजी हुई है कि मैं उसके साथ उनके पिता जी के घर पर ही रहूँ. वैसे, तू चिन्ता मत कर, मैं बीच बीच में आता रहूँगा मिलने.कोई भी काम हो तो फोन नम्बर भी दिया है कि इस पर फोन लगवा लेना. उसे चिन्ता लगी रहेगी. बहुत ख्याल रखता है बेचारा बसुआ. जाते जाते कह रहा था कि अब तो मेरा खर्च भी तुझको नहीं उठाना है. बसुआ पढ़ लिख गया है तो तू एकाध घर कम कर ले और हफ्ते में एक टाईम की छुट्टी भी लिया कर. अकेले के लिये कितना दौड़ेगी भागेगी आखिर तू. और अब इस उम्र भी तू पहले की तरह काम करेगी तो सोच, मुझे कितनी तकलीफ होगी. आखिर बेटा हूँ तेरा.
तब से सरौता बाई रोज ५.३० बजे आने लगी.

Sunday, September 21, 2008

जंगल जिंदगी

कहानी
नूर मुहम्मद नूर
नूर मुहम्मद नूर समकालीन हिंदी ग़ज़ल में एक चर्चित नाम है। हिंदी के अलावा उर्दू, अरबी, फ़ारसी, बांग्ला और भोजपुरी में साहित्य की हर विधाओं में पिछले तीन दशकों से सक्रिय लेखन। दो दर्जन कहानियां, विभिन्न विधाओं की पचास पुस्तकों की समीक्षा, ढेरों व्यंग्य रचनाएं, ग़ज़लें, कविताएं हिंदी की विभिन्न लघु पत्रिकाओं में प्रकाशित। कविताओं की पहली किताब ताकि खिलखिलाती रहे पृथ्वी, कहानी संग्रह आवाज़ का चेहरा, ग़ज़ल संग्रह दूर तक सहराओं में प्रकाशित। दस पुस्तकें प्रकाशनाधीन।


पिछले पांच दिनों के भयावह अंतर्द्वन्द्व से आज कहीं जाकर नसीम को मुक्ति मिली। सोमवार की दोपहर अपने दो साल के मटमैले चिथड़े पहने, बेटे को अपनी गोद में सुला रही, उस पागल जैसी औरत को देखने के बाद से, निरंतर पांच दिनों की लंबी मानसिक उथल-पुथल ने अंदर से पूरी तरह तहस-नहस कर रखा था। वह औरत बार-बार उसके जेहन में अपने बच्चे समेत आ धमकती। उसका बार-बार चारों ओर, आते जाते लोगों को देख कर हाथ फैलाना, रिरियाना...मुंह और बच्चे की ओर इशारा करना, खाते-पीते, सोते-जागते उसके जेहन में कौंधती रही वो। नसीम उसके बच्चे के बारे में सोचता। पता नहीं कौन है पिता उसका? अगर बच्चे को बुखार हो गया तो? अगर वो औरत ही किसी बड़ी बीमारी की गिरफ़्त में अचानक आ जाये तो...अच्छा बच्चे को बुखार है, यह औरत क्या जान पाएगी? बच्चा उस दिन औरत की गोद में बेसुध पड़ा सो रहा था...क्या उसे बुखार था? सोमवार की उस दोपहर जब वो घाट से पुस्तकालय के लिए पत्रिकाएं लेकर लौटा तब भी, उसने देखा बच्चा उसकी गोद में बेसुध पड़ा हुआ है...पास ही बैठे खीरे वाले से उसने दो छिले हुए खीरे कऱीद कर उस औरत को देते हुए कहा-- ''एकटा बाच्चा के देबै'' (एक बच्चे को दे देना)
''ओ घुमोच्चे।'' (वो सो रहा है)
''ठीक आछे। वो उठले ओके दिए देबे।'' (ठीक है, जब वो उठेगा तो उसे दे देना)
''हां, रेखे दिच्छी'।'' (अच्छा, मैं रख देती हूं)
उस औरत ने खीरे को कटोरे में डाल लिया था। वो फिर अपने दफ्तर चला आया था। पर एक नामालूम सी बेचैनी थी कि उसे मथे दे रही थी और उसकी जड़ में वो पागल सी औरत और उसका दो साल का बेटा...उसी दिन बाद में, कोई चार बजे के आसपास उसे हठात ख्याल आया अरे! उस बच्चे को बुखार है या नहीं यह तो, उस औरत को खीरे देते वक्त पूछना ही भूल गया था। नसीम अपने अंदर की पागल बेचैनियों पर सवार फिर भागा घाट की ओर। पर यह क्या? औरत वहां नहीं थी। वह अपने बच्चे के लेकर कहां चली गई? उसने दोनों तरफ के फुटपाथों पर दूर तक...घाट पर...फेयरली से लेकर आर्मेनियम घाट तक चारों ओर उस औरत को तलाशा पर वह कहीं नहीं थी। इसके साथ ही नसीम ने भी जैसे महसूस किया कि वह भी कहीं नहीं है। आखिर खुदा ने उसे इस बेदिल दुनिया में भी ऐसा कमबख्त दिल क्यों अता फरमाया? इतनी भावुकता, ऐसी छल-छल संवेदना कोई अच्छी बात नहीं मानी जाती इस दुनिया में। आलोचना भी अति भावुक एवं सघन संवेदनशील रचनाओं को अच्छी निगाह से नहीं देखती। इसे वह लेखक की कमज़ोरी और नासमझी कहकर ख़ारिज कर देती है।
फिर नसीम ने खुद को दिलासा दिया...अरे ठीक है, कहीं और चली गई होगी...हो सकता है बच्चे को सचमुम बुखार हो और उसे पता चल गया हो और वह बच्चे के लिए कहीं दवा मांगने चली गई हो। उसने कई तरह से खुद को तसल्ली दी...बड़े बेवकूफ हो यार। अरे इतना भी क्या परेशान होना? दुनिया में हज़ारों-लाखों ऐसे हैं, जिनका घर नहीं है, दर नहीं, ज़र-ज़मीन नहीं। खाने-पहनने को नहीं...ऊपर से दर-दर की ठोकरें, फिर तुम तो यूं परेशान हो रहे हो मानो वो कोई तुम्हारी रिश्तेदार हो...छोड़ो यार...कहीं होगी वह..फिर किसी दिन नज़र आ जाएगी अपने बच्चे के साथ..इस बार खीरा नहीं...पावरोटी बिस्कुट खिला देना। नसीम फिर अपने दफ्तर के 'कहीं' में लौट आया था, जैसे वह दुनिया के किसी और कहीं में हठात समा गई थी।
सोमवार, मंगलवार, वह अंदर ही अंदर टूटता-बिखरता रहा, पिघलता रहा...एक अजीब किस्म की उदासी-बेचैनी व्याकुलता में लिपटा, सोचता ...बसों में, दफ्तर और घर में...पत्नी ने कई बार उसको इस कैफियत के साथ पकड़ा भी...''का हुआ है जी? कई दिन से बड़ा खोए लग रहे हैं। ऑफिस में किसी से झगड़ा-वगड़ा हुआ है का? कौनो अफसर कुछ बोल दिया है...कितनी बार समझाया कि अफसर लोग से दूर रहिए...ऊ लोग आपका क़दर नहीं करेगा...पर आप?'' ''अरे, नहीं ऐसी कोई बात नहीं है। ...दौरा पड़ा है...देख नहीं रही हो, सुबह उठकर...फिर दफ्तर से आकर क्या करता हूं।''
फिर बुध से शुक्रवार तक यही कैफ़ियत बनी रही...पहले कुछ शेर सूझे...नसीम ने सोचा एक ग़ज़ल ही हो जाय...पर बात नहीं बनीं...फिर एक नज़्म...उसे लगा यही ठीक रहेगी। पर ग़ज़ल की तरह वो भी चार-पांच पंक्तियों के बाद बिला गई...तमाम मशक्कतों पर पानी फिर गया। न ग़ज़ल पूरी हुई, न नज़्म अपने अंज़ाम को पहुंची...बेचैनी थी कि उसने ग़ज़्लोनज़्म के अश्आर में दाखिल होने से इंकार कर दिया था...बहुत कोशिश की,...फिक्र और ख्याल के घोड़े दौड़ाए...पर हासिलअदूरी नज़्में-ग़ज़लें...फटे हुए दिल की बेचैन आवाज़ें अल्फाज़ में पनाह नहीं पा सकीं। उन ग़ज़लों के अलफाज़ में, जिनमें ग़ालिब ने दर्दे ग़म की कितनी ही कायनात निचोड़ डाली थीं। लेकिन उनसे भी तो वो सबकुछ, जो आदमी को आदमी के अंदर के आदमी और उसकी दुनिया को यकायक तबाहो बर्बाद कर दी जाती है, लफड़ों में उसी तरह नहीं निचोड़ा गया था। तब उन्हें भी अपने दुखों को बयान करने के लिए डायरी 'दस्तम्बू' लिखनी पड़ी थी...और ख़ुतूत भी।
पर आज उसने अपनी इन बेचैनियों से छुटाकारा पा ही लिया...पांच दिनों से अंदर ही अंदर घुमड़ रही बेचौनियों का लावा अन्तत: पूरी तरह पिघल कर बाहर निकल ही गया। उसने चार-पांच पन्ने घसीटे और पूरा का पूरा लावा एक कहानी के हज़ार शब्दों में... नसीम को तभी से कुछ राहत सी महसूस हो रही है...पर राहत से उसे अपनी अंदरूनी हलचलों-बेचैनियों से मिली है। पर वो औरत और उसका नंगधड़ंग मटमैला भूखा बच्चा...उस औरत और बच्चे को उसने अपनी कहानी में नहलाया और अच्छे कपड़े पहनाकर अच्छे भोजन भी दिया है...अपने मन की तसल्ली उसने कहानी लिख कर कर ली है...अपना सारा बेचैन गुबार भी उसने निकाल लिया है...पर सचमुच वह औरत क्या अब तक कहीं नहा चुकी होगी और उसने अपने बच्चे को भी नहला दिया होगा? क्या उन दोनों ने इस समय साफ़ कपड़े पहन लिये होंगे...बढ़िया भरपेट भोजन क्या उन्हें मिल गया होगा? क्या वह औरत इस समय किसी सुरक्षित स्थान पर अपने बच्चे को अपनी छाती से चिमटाए सुख की नींद सो रही होगी?
नसीम को लगा उसकी राहत बाढ़ज़दा लोगों को मिली रही राहत से ज़्यादा नहीं है। उन्हें आसमान से गिराए गए चिउड़ा-गुड़-बिस्कुट के पैकेट बड़ी मुश्किल से मिल पाते हैं, और उसे एक कहानी मिल गई है...लेखक का ज़मीर भी लेखक ही होता है...नसीम को लगा मगर उसके लेखक का ज़मीर मगर लेखक नहीं है...वह लेखक की तरह नहीं सोचता...शाइरों की तरह फिक्रमंद और फनपरस्त नहीं है...
उसका ज़मीर उसके अंदर से बल खाकर बाहर निकल आया और बोंसाई आदमी की शक्ल में उसके राइटिंग टेबल पर खड़ा हो गया... ''क्यों मिल गई तुझे राहत? पांच दिन से इसी के लिए तड़प रहा था न तू? ग़ज़ल, नज़्म और आखिर में कहानी... वाह क्या कहानी है? एक औरत जिसका कोई नहीं...पर उसका एक बच्चा है...वह भीख मांग कर अपना और अपने बच्चे का गुजारा करती है...फुटपाथों पर रहती है...अरे! वह भी पैदा हुई होगी...होंगे उसके भी मां-बाप...भाई-बहन...रिश्तेदार कहां मर गए सब? उस बच्चे का बाप कौन है? कहां है वो... किसने उस औरत को इस दशा में पहुंचाया...देखा है तुमने...किसी मर्द को एक बच्चे के साथ रहते हुए इस हालत में...फुटपाथ पर भीख मांग कर खाते हुए...चीरहरण द्रोपदी का, युधिष्ठिर का क्यों नहीं? क्या है औरत में जो सिर्फ और सिर्फ उसी की बेहुरमती, उसी का अनादर..हर काल खंड में...और आज भी स्त्री विमर्श...काहे का विमर्श...विमर्श के लिए विमर्श...दलित विमर्श...दलित को और...और...रोज...रोज पददलित करो और फिर उस पर दलित विमर्श... कहानी लिखकर राहत महसूस कर रहे हैं...अरे कैसी और कहां की राहत...क्या राहत पाने के लिए ही लिखा जाय केवल? और चीजें-सूरते बनी रहें...प्रेमचंद ने सैकड़ों कहानियां लिखीं, उपन्यास लिखे, भाषण दिए...कथा और उपन्यास सम्राट माने गए...सारा जीवन उन्होंने किसानों-मजूरों और गरीबों की कहानियों की खेती की। आज उनके नाम पर लाखों-करोड़ों के वारे न्यारे हो रहे हैं लेकिन आज स्थिति क्या है? उनके हलकू-होरी मुल्क में चारों ओर आत्महत्याएं कर रहे हैं...जगह-जगह उनके हलकू-होरी की ज़मीनें जबरन उनसे छीन कर उन्हें मारा पीटा और उनकी ज़मीन से बेदखल किया जा रहा है, उनके घीसू-माधव की संततियों की संख्या देश भर में दिन दूनी रात चौगुनी की रफ्तार से बढ़ रही है...कालिदास की शकुंतला ही उनकी निर्मला है...और तुम्हारी निर्मला औरत...यह औरत जो अनाम है...और निश्चित रूप से वह लड़का इस औरत का भरत नहीं है...कौन है यह लड़का....कहानी लिख कर राहत महसूस कर रहे हो...पूछो...पूछो...अपनी बीवी से पूछो...सारा सारा दिन गृहस्थी के हिमालय वो लांघती है....पार करती है रोज रोज अभावों के भयावह जंगल...। वसंत जले हुए वनों की तरह उसके होठों पर फड़फड़ाता रहता है...सारा...सारा दिन...झाड़ू-बुहरू, धोना-पोंछना, सीना-पीरोना, रसोई और...रात फिर तोड़ती है सितम...सितम उसकी देह पर...और वह पसर जाती है पृथ्वी की तरह बेजुबान....पूछो...पूछो...कितना राहत महसूस करती है वह यह सब करते हुए...एक कहानी लिखकर राहत महसूस कर रहे हो....और बस सारी जिम्मेदारी खत्म....लानत है...हज़ार लानत है तुम पर....तुम्हारे लेखक पर...आख थूsss....
इतना लंबा डायलॉग झाड़ कर नसीम का ज़मीर तो गायब हो गया पर उसने सिर पकड़ लिया। लगा किसी ने उसके सिर पर हथौड़ों से प्रहार किया हो। उसने एक सिगरेट सुलगा ली मानो ऐसा करते ही उसे इस भयानक मानसिक स्थिति से मुक्ति मिल जाएगी। थोड़ा स्थिर होने पर फिर वह कहानी के नेकपल ठीक करने लगा...तभी उसने देखा...पत्नी जो रसोई में थी...हठात् बरामदे में आकर फर्श पर धम्म से बैठ गई 'या अल्लाह! रहम कर मालिक।' उसकी आवाज़ में एक अजीब तरह की वेदना और खीझ भरी हुई थी और उसके भाव भी जैसे उसके चेहरे पर उभर आए थे. उसने देखा गमले में आटा सानने के लिए अभी वैसा ही पड़ा हुआ था। सामने जग में पानी भी पड़ा था। उसने इस बार गौर से देखा, गर्मी और घमौरियों की मार से पत्नी की गर्दन और निचले हिस्से स्याह धब्बों से हो रहे थे।
''क्या हुआ? बहुत थक गई लगती हो, तबीयत तो ठीक है ना...दो... मैं आटा सान दूं....''
पत्नी ने उसे घायल सिंहनी की तरह घूर कर देखा मानो नसीम ने कोई बहुत गलत बात कह दी हो। ''हम आपको बोले हैं आटा सानने के लिए?''
''नहीं लेकिन सान दूंगा तो क्या हो जाएगा? सारा दिन ही तो खटती हो...अगर मैं इसमें थोड़ा हाथ बंटा दूं तो इसमें गलत क्या है? आखिर मैं कर ही क्या रहा हूं? कहानी ही तो लिख रहा हूं...कहानी-कविता लिख सकता हूं तो आटा भी सान सकता हूं। मैं क्या कोई लाट-गवर्नर हूं?''
''नहीं...नहीं...आप अपना ही काम कीजिए। जिसका जो काम, उसको वही करे तो अच्छा।''
''क्यों? तुम तो आजकल देख रहा हूं कविताएं भी लिख रही हो। एक पूरी नई डायरी तुमने लगभग भर दिया है। यह क्या तुम्हारा काम है?''
''वो तो मैं ऐसे ही , जब कुछ फुरसत होती है, नींद नहीं आती है तो लिख लेती हूं...पर आप तो कवि हैं....आपका इतना नाम..मान-सम्मान है...इतना छपता है....किताबें हैं....आपका तो काम ही लिखना-पढ़ना है...आटा सोनेगो--अचानक आकर कोई देख लेगा तो क्या सोचेगा? कहेगा कि देखो मरद से घर का काम करवा रही है।''
''क्यों यह घर मेरा नहीं है क्या? मैं घर का काम क्यों नहीं कर सकता? वैसे भी सारा काम बाहर का करता ही हूं। राशनपानी, दवा-दारू, सब्जी, कपड़ा-लत्ता कौन लाता है? मैं ही ना...लाओ...इधर दो...सान देता हूं आटा...जाओ तुम थोड़ा आराम कर लो।''
नसीम ने उठकर आटा का गमला ले लिया। अभी उसमें वो वहीं बैठकर इसके पहले कि पानी डालता...मोबाइल घनघनाने लगा। विद्युत गति से उठकर नसीन ने मोबाइल कान से चिपका लिया। ''हलो,'' उधर से आवाज़ आ रही थी।
''नानू, सलामालेकुम,...क्या करते हैं? मैं साहिल बोलता...नानी कहां है...खाला..अम्मी...मामा...'' नाती का फोन था। उसकी मां ने फोन लगाकर उसे थमा दिया होगा। चार-साढ़े चार साल का साहिल। उसका नाती। अचानक वो जैसे तनाव मुक्त हो गया था। एक अनजानी खुशी जाने कहां से आकर उसके दिल में समा गई थी। उसने पत्नी को आवाज़ दी ''ए जी, सुनती हो...नाती को फोन है...लो बात कर लो।'' उसने पत्नी को फोन थमा दिया था।
पर तभी उसके जेहन में वह औरत अपने बेटे के साथ कौंध गई...लगा यह वही लड़का है...जो नानू कहकर फोन कर रहा है...और उसकी मां वही पगली सी औरत...उसकी बेटी ही जैसे...उसकी अपनी बेटी...अपना नाती...।

Thursday, September 18, 2008

मन में खड़ी थी दीवार

उर्दू कहानी

बीच की दीवार--भाग 2

गियासुर्रहमान
अनुवाद : नसीम अजीजी


कल कहानी के पहले भाग दंगा और एक बाप की बेबसी में आपने पढ़ा मशकूर अली का संकट। आज पढ़िए कहानी की दूसरी और आखिरी किस्त

आस-पड़ोस में सभी हिंदुओं के मकान थे। यों तो उनके ताल्लुकात सभी से अच्छे थे लेकिन इस फ़साद ने तो दिलों में दरारें पैदा कर दी थीं, किस पर एतबार किया जाय? उनके घर की दीवार के उस तरफ पंडित रतनलाल रहते थे। उनकी बच्ची भी सुग़रा के साथ एक ही स्कूल में पढ़ती थी। दोनों में इस क़दर दोस्ती थी कि एक दूसरे के बगैर एक पल भी रहना गंवारा न था। ऊषा की गुड़िया और सुग़रा का गुड्डा, जिनकी कई बार शादी रचाई गई थी, आज अलग-अलग थे। ऊषा उधर रो-रो कर सुग़रा के घर जाने की जिद कर रही थी लेकिन पंडित रतनलाल खतरा महसूस कर रहे थे। ''मशकूर अली मुसलमान है, वैसे तो वो भला आदमी है लेकिन दंगे में तो सारे मुसल्ले एक जैसे हो जाते हैं। नारा-ए-तकबीर की आवाज़ कान में पड़ते ही आपे से बाहर हो जाते हैं। मैं अपनी बेटी को उसके घर भेजूं और वो उसका गला दबा दे तो क्या होगा?''
वो अपनी बेटी को बहुत समझाते लेकिन उसकी जिद बढ़ती ही जा रही थी। उधर सुग़रा की हालत ग़ैर हो रही थी। मशकूर अली की बेगम और राशिदा रोने लगीं। मशकूर अली उन्हें दिलासा तो दे रहे थे लेकिन खुद उनकी आवाज़ भी भर आई थी और आंखें डबडबाने लगीं। वो कुछ कहना ही चाहते थे कि अचानक उनकी दीवार पर आहट हुई। रात काफी हो चुकी थी। कोई उनके घर की दीवार तोड़ रहा था। दीवार के उस तरफ पंडित रतनलाल का मकान था। मशकूर अली ने अपनी बंदूक कस के पक़ड़ ली। उसमें कारतूस भर दिए और खतरे से निपटने के लिए तैयार हो गए। उन्होंने बेगम से कहा कि वो सुग़रा को लेकर दूसरे कमरे में चली जायं और राशिदा को अपने साथ रहने का हुक्म दिया। वो दिल ही दिल में बड़बड़ाए, '' मुझे रतनलाल से ऐसी उम्मीद न थी कि वो फसादियों को अपने घर से मेरे घर में दाखिल करेगा। वैसे तो बड़ा प्यार जताता था लेकिन आज उसने अपना कमीनापन दिखा ही दिया।''
मशकूर अली ने मुस्तहकम इरादा कर दिया कि फ़सादियों के अंदर घुसते ही वो गोली चला देंगे चाहे उनमें रतनलाल ही क्यों नो हो, जब उसको दोस्ती का एहसास नहीं है तो मैं क्यों हिचकिचाऊं।
दीवार के पीछे से कुदाल की ज़र्बें लग रही थीं और हर ज़र्ब के साथ मशकूर अली के दिल की धड़कन तेज़ हो रही थी, राशिदा उनके पीछे सहमी हुई, ज़ख्मी फ़ाख़्ता की तरह कांप रही थी--''पुराने ज़माने की दीवार इतनी आसानी से नहीं गिरेगी''---एक जगह से चूना उखड़ना शुरू हुआ। मशकूर अली दीवार के बिल्कुल करीब आ गए। बहुत देर के बाद दीवार की एक ईंट घऱ में गिरी और आर-पार एक सुराख हो गया। मशकूर अली ने ललकार कर कहा--''खबरदार! अगर किसी ने अंदर घुसने की कोशिश की तो गोली चला दूंगा।'' और उन्होंने बंदूक की नाल ईंट से निकले हुए सूराख पर लगा दी लेकिन दूसरे ही लम्हे ऊषा की आवाज़ ने चौंका दिया।
''मशकूर चाचा, मैं सुग़रा के लिए खाना लाई हूं।'' और उसने सूराख से एक छोटा सा टिफिन अंदर की तरफ बढ़ा दिया।

Wednesday, September 17, 2008

दंगा और एक बाप की बेबसी

उर्दू कहानी

बीच की दीवार


गियासुर्रहमान
अनुवाद : नसीम अजीजी

पूरे दस दिन हो गए थे। फ़साद की आग जो भड़की तो बुझने का नाम नहीं लेती थी। सारे शहर में सख्त कर्प्यू के बावजूद वारदातें हो रही थीं। पूरी दस रातें आंखों में गुजर गईं। इस क़दर शोर-शराबे में नींद किसको आती है? फिर हर वक्त ये डर कि कहीं फ़सादी हमला न कर दें। यों तो पहले ही सब कुछ लुट चुका है लेकिन जान सबको प्यारी होती है और उससे भी प्यारी औलाद।
मशकूर अली और उनकी बेगम, अपनी दो बेटियों को गले लगाए बारगाहे-इलाही में दुआएं करते रहते थे कि ''खुदाया इन मासूम बच्चियों पर कोई आंच न आये, चाहे हमारी चिक्का बोटी कर दी जाये।''
बड़ी लड़की राशिदा हाई स्कूल पास करके इंटर में दाख़िल हुई तो अचानक ही उस पर ऐसा निखार आया कि पूरे मुहल्ले की नज़रों में समा गई। कॉलेज के मनचले हसरत भरी निगाहों से देखने लगे। आस-पास क्या, दूरदराज़ से भी कई पैग़ाम आने लगे लेकिन मशकूर अली ये कहकर इंकार कर देते कि ''अभी बच्ची पढ़ रही है और मैं इसको आला तालीम दिलवाना चाहता हूं। खुदा ने बेटा नहीं दिया तो क्या, ये मेरी बेटियां ही बेटों से बेहतर हैं।''
लेकिन राशिदा की जवानी ने मां-बाप की आंखों से नींद छीन ली थी और दिन-ब-दिन एक अजीब सा इज़्तेराब बढ़ता जा रहा था और पिछले दस रोज़ से तो वो सिर्फ राशिदा की फिक्र में इतने परेशान थे कि कोई मौत से भी इतना परेशान न होगा। वैसे कई बार मशकूर अली ने अपनी दो नाली बंदूक निकाल कर उसकी सफाई की थी और पुराने करातूस को धूप दिखाई थी। वो रोजाना कारतूस गिन-गिन कर रखते थे। कुल नौ कारतूस थे।

उन्होंने अच्छी तरह सोच रखा था कि अगर फ़सादी आते हैं, पहले तो सद्र दरवाज़ा ही आसानी से नहीं टूट सकेगा। अगर दरवाज़ा टूट भी जाता है और वो अंदर घुसने की कोशिश करते हैं तो मशकूर अली राशिदा को अपने साथ ही रखेंगे। जहां तक हो सका आठ कारतूसों से फसादियों का मुकाबला करेंगे और नवां कारतूस राशिदा की इज्जत बचाने के लिए काफी होगा लेकिन आज उन्हें राशिदा की कम और अपनी छोटी बेटी सुगरा की ज्यादा फिक्र थी। सुग़रा सात-आठ साल की थी और अपनी तोतली जबान में इतनी प्यारी बातें करती थी कि सभी उसके गरवीदा थे। पिछले तीन दिन से वो बुखार में मुब्तला थी। दवाई तो दरकिनार, खाने के लिए एक दाना भी बाकी न था।
मशकूर अली हमेशा ज़ख़ीरा अंदोजी के ख़िलाफ़ थे और कभी उन्होंने मुस्तक्बिल की फिक्र न की थी लेकिन अब पछता रहे थे।'' काश पहले ही एक आध बोरी आटा या चावल वैगरह जमा कर लेता तो आज ये नौबत न आती।'' उस कर्फ्यू में बिजली और पानी का निजाम दरहम-बरहम हो गया था। अब तो पीने का पानी भी बमुश्किल तमाम फराहम हो पा रहा था और फिर रह-रह कर सुग़रा का दिलदोज़ अंदाज़ के साथ खाना मांगना उन्हें बेचैन कर रहा था। आज तक उन्होंने किसी के आगे हाथ नहीं फैलाए थे। जमींदारी खत्म हुई, जायेदाद के बंटवारे हुए। मशकूर अली के हिस्से में ये पुराना मकान और चार छोटी-छोटी दुकानें आईं, जिनका बरायेनाम किराया ही उनका जरिय-ए-गुज़र औक़ात था। उन्होंने इसी पर इक्तेफ़ा किया, लेकिन अपने भाइयों में सबसे बड़े होने के नाते उन्होंने जिद करके अपने बुजुर्गों की निशानी ये दो-नाली बंदूक अपने कब्जे में कर ली थी। कितने ही उतार-चढ़ाव आये, एक-एक करके घर की सभी क़ीमती चीजें सस्ते दामों में बिक गई। फाकों तक की नौबत आई लेकिन उन्हें अपने आबाई शानो शाकत की निशानी उस दो नाली बंदूक को बेचने का ख्याल भी नहीं, मगर आज वो अपनी सुग़रा की भूख की खातिर अपनी जान भी बेचने को तैयार थे। वो फ़कीरों की तरह भीख मांग कर भी अपनी बच्ची का पेट भरना चाहते थे लेकिन बाहर निकलना मुमकिन न था। कर्फ्यू ने सख्त शक्ल अख्तियार कर ली थी, देखते ही गोली मार देने के अहकामात जारी हो गए थे। बाहर पुलिस की जीप गुजरती और लाउडस्पीकर पर यही ऐलान करती कि कोई भी घर से बाहर न निकले।


क्या इस भीषण संकट से निकल पाए मशकूर अली? क्या सुग़रा को मिल पाया पेट भर खाना? क्या राशिदा की रक्षा कर पाए मशकूर अली अपनी दो नाली बंदूक से? जानने के लिए कहानी का अगला और आखिरी किस्त पढिए कल

Tuesday, September 16, 2008

सब कुछ माया है

मामाजी--दूसरी और आखिरी किस्त
रागिनी पुरी

कल कहानी मामाजी की पहली किस्त में आपने पढ़ा कि सुमेधा किस तरह अपने मामाजी के व्यक्तित्व से प्रभावित थी। आज पढ़िए कहानी की दूसरी और आखिरी किस्त

मन ही मन मामाजी की तारीफों के पुल बांधते बांधते सुमेधा का ध्यान अपने पापा की ओर चला गया है। बिलकुल मस्तमौला इंसान हैं उसके पापा। दिल के बिलकुल साफ, पर अपने दम पर तो वो घर को बिलकुल मैनेज नहीं कर सकते। अगर घर में वो अकेले हों और चार मेहमान आ जाएं, तो उन्हें तो कुछ सूझेगा ही नहीं...उन्हें तो हर चीज़ मम्मी से मांगने की आदत है...हां चाय शायद ज़रूर बना लेंगे। सुमेधा सोचते- सोचते हंसने लगी।राखी की रस्म हो गई है। काफी देर से हंसी ठहाकों का सिलसिला चल रहा है। पूरी तरह से फील गुड फैक्टर वाला माहौल है। नाश्ता भी लगभग हो ही चुका है। गर्मागर्म आलू के परांठे, घर का बना सफेद मक्खन और दही। अब गर्मागर्म मसालेदार चाय की चुस्कियों के साथ ठहाकों का दौर चल रहा है। बचपन की बातें, लड़ाई झगड़े, बेवकूफियां...सब याद की जा रही हैं।अब बस थोड़ी ही देर में स्वामीजी के आश्रम के लिए निकलना है। वहां से सत्संग के बाद सुमेधा मम्मी के साथ अपने घर चली जाएगी।

शंभू ने गैरेज से कार निकाल दी है और अब उसे चमका रहा है। घर के सभी लोग तैयार हो निकलने की तैयारी कर रहे हैं।सत्संग के बाद मामाजी स्वामीजी के साथ रहेंगे और मामीजी फैक्ट्री चली जाएंगी, कुछ ज़रूरी काम निपटाने। सभी सत्संग घर के लिए निकल पड़े हैं। कार मामाजी ही ड्राइव कर रहे हैं। सुमेधा पीछे मम्मी के साथ बैठी है। मामीजी आगे हैं। सीडी प्लेयर पर स्वामीजी का सत्संग चल रहा है। सभी उसमें खोए हैं...."मनुष्य अपने कर्मों से जाना जाता है। वो खाली हाथ आया है, खाली हाथ जाएगा। सारी माया यहीं रह जाएगी...इसलिए ऐ परमात्मा के बन्दे, पाप ना कर, कल किसने देखा है...मोहमाया त्याग दे।" सत्संग चल रहा है, सभी चुप हैं।

ट्रैफिक सिग्नल पर गाड़ी रुकी है। एक मैली कुचैली सी लड़की कार की ओर बढ़ रही है। बाल बुरी तरह उलझे हुए...छोटी सी फ्रॉक कई जगह से फटी हुई...हाथ में एक गंदा सा कपड़ा है, जिसे वो कार पर फेरने लगी है।

"साले बहन..., सुबह सुबह आ जाते हैं।" मामाजी ज़ोर से बड़बड़ाने लगे हैं। लड़की उनके शीशे के बिलकुल पास आ गई है...हाथ फैलाए हुए...कुछ बोल भी रही है, पर कार के अंदर उसकी कमज़ोर आवाज़ सुनाई नहीं दे रही।

"साले हराम के पैदा करके छोड़ देते हैं सड़क पर....हमने क्या टकसाल लगाई हुई है...चल भाग यहां से...!" मामाजी बोलते जा रहे हैं...पर लड़की वहीं खड़ी हुई है....हाथ फैलाए...सुमेधा का दिल कर रहा है उस बच्ची को कुछ देने का...पर मामाजी का गुस्सा देख हिम्मत नहीं हो रही। शरीर ही मानो जड़ हो गया है। ना मुंह से आवाज़ निकल रही है और ना शरीर हिल रहा है। अभी अगर पापा होते यहां तो मामाजी को ज़रूर टोकते और बेचारी सी बच्ची को ज़रूर कुछ देते। पर ज्यादा धक्का तो इस बात है कि मामाजी बोल रहे हैं ये सब..! उसके सोफिस्टिकेटेड मामाजी...!सिग्नल अभी तक लाल ही है। अब तो लड़की हाथ फैलाए गिड़गिड़ा रही है। कार के शीशे से हाथ नहीं हटाया है अभी तक।

"सालों हरामज़ादों...! समझ नहीं आ रही क्या..." मामाजी ने कार का शीशा नीचे किया है।"ओए तुझे समझ नहीं आ रही क्या...नहीं देना कुछ भी हमने...भाग जा...पता नहीं कहां से आ जाते हैं साले...कार का शीशा खराब कर के रख दिया !" मामाजी ने लड़की को ज़ोर से धक्का दिया है। वो बीच सड़क पर गिरते गिरते संभल गई है और दूसरी कार की ओर बढ़ने लगी है।सिग्नल हरा हो गया है।

"बेवकूफ ने सारा शीशा खराब कर दिया...हाथ के निशान पड़ गए हैं...बेवकूफ लड़की..." मामाजी कार आगे बढ़ाते हुए गुस्से में बड़बड़ाते जा रहे हैं। मामीजी चुप हैं। शायद अपने पति की बातों को मौन सहमति दे रही हैं। मम्मी भी चुप हैं। पता नहीं उनके मन में क्या चल रहा है। सुमेधा भी चुप है। पर उसकी तो मानो ज़ुबान ही बेजुबान हो गई है। हर बात पर बढ़ चढ़कर बोलने वाली सुमेधा भी आज चुप है। सीडी प्लेयर पर स्वामीजी कहते जा रहे हैं,"बंदे, ये दुनिया तो बस एक छलावा है....तू ध्यान कर...इस मोहमाया की दुनिया से बाहर निकल....तू खाली हाथ आया है, खाली हाथ ही जाएगा..."

Monday, September 15, 2008

मामाजी

रागिनी पुरी
युवा पत्रकार रागिनी पुरी की संवेदना हर उस चीज को पकड़ती है, जो झकझोरती है। अंदर से हिला देती है। मामाजी कहानी में भी उन्होंने बहुत ही छोटी सी बात के इर्द गिर्द कहानी के ताने-बाने को जिस तरह बुना है, उससे उनकी संवेदनात्मक पकड़ को समझा जा सकता है। लगातार लिखती हैं और उनके तीन ब्लॉग हैं, जहां जाकर आप अलग-अलग किस्म की रचनाओं का स्वाद ले सकते हैं। ये ब्लॉग्स हैं--किस्से कहने हैं, THE WRITTEN WORD, THE SOLITARY REAPER

मामाजी--भाग एक

करीब छह बज रहे हैं। पूरा घर सुबह की पहली अंगड़ाई ले रहा है। सुमेधा के कानों में हल्की हल्की आवाज़ें छन कर आ रही हैं। कभी बाथरूम की हल्की फुल्की उथल पुथल, तो कभी रसोई में बर्तनों के खड़कने की आवाज़ें...इसका मतलब मामीजी जाग गई हैं। लॉबी से किसी के चलने की आवाज़ें आ रही हैं। भारी चप्पलें मार्बल के फर्श पर आवाज़ करती हुईं....मामाजी हैं....मामाजी तो काफी पहले ही उठ गए होंगे।

सुमेधा ने हल्के से चादर से सिर बाहर निकाला है। बेडरूम के दरवाजे से उसकी नज़र मामाजी पर पड़ी है। सफेद रंग का धुला हुआ कुर्ता पायजामा पहनकर तैयार मामाजी...बाल करीने से संवरे हुए...कितनी एनर्जी है इनमें...नहा भी लिया...! कितने बज़े उठे होंगे...सुमेधा अलसाई हुई करवट बदलने की कोशिश करती है। पर फिर झिझक के कारण कुछ देर और बिस्तर पर पड़े रहने का इरादा छोड़ना पड़ता है।

अपना घर और अपना बेडरूम होता तो फिर तो आठ बजे तक सोई रहती...कोई नहीं टोकता..पर ये तो मामाजी का घर है। इसलिए थोड़ा लिहाज तो करना पड़ेगा। सुमेधा पिछली रात ही आई है यहां...अपनी मम्मी के साथ। आज राखी जो है। मम्मी मामाजी को राखी बांधेगीं, फिर सभी सत्संग सुनने स्वामीजी के आश्रम जाएंगे। सुमेधा के घर में सभी बड़े भक्त हैं स्वामीजी के। बहुत भक्ति भाव है सब में। और मामाजी और मामीजी में तो कुछ ज्यादा ही भक्ति भाव भरा है।मामाजी कहते हैं कि उन पर स्वामीजी कि बहुत कृपा है। सब कुछ उनका दिया हुआ ही तो है। आलीशान बंगला, दो दो लंबी कारें, फैक्ट्री, शानदार ऑफिस, नौकर चाकर....बेटी की शादी हो चुकी है, और बेटा विदेश में है। किसी तरह कि कोई कमी नहीं...सच में बड़ी कृपा है स्वामीजी की। अब मामाजी में भी तो भक्ति भाव बहुत है, कृपा तो होगी ही। स्वामीजी का आश्रम वैसे तो राजस्थान में है, पर आए दिन दिल्ली आते रहते हैं। विदेशों के दौरे पर भी जाते हैं तो दिल्ली से होकर ही जाते हैं। और उनके दिल्ली आने पर मामाजी उनके साथ ही रहते हैं, साए की तरह।

बहरहाल सुमेधा बिस्तर से उठ बैठी है। लॉबी में बैठे अखबार पढ़ रहे मामाजी की नज़र उस पर पड़ गई है।

"गुड मार्निंग बेटा," वो वहीं से बोल रहे हैं।

"गुड मार्निंग मामाजी," कहती हुई सुमेधा लॉबी की तरफ बढ़ने लगी है।

"और गर्मी तो नहीं लगी रात को? मैंने ए-सी बंद कर दिया था।"

"नहीं मामाजी, बल्कि सुबह को तो ठंड होने लगी थी। अच्छा किया ए-सी बंद कर दिया।"

"तो हां बेटाजी...पहले तो ये बताओ की नाश्ते में क्या लोगे? वैसे तुम्हारी मामी ने आलू उबाल लिए हैं। अब बताओ, सैंडविच खाओगे या फिर आलू के परांठे ? "

"मामाजी, दोनों चीज़े परफेक्ट हैं, जो सभी खाएंगे, मैं भी वही खाऊंगी," कहती हुई सुमेधा रसोई की ओर बढ़ने लगती है। मामाजी भी अखबार समेटते उसके पीछे आने लगते हैं।रसोई में मामीजी चुपचाप काम में लगी हैं। वो ज़्यादा बोलती नहीं। बस काम की ही बात करती हैं। शंभु घर की सफाई कर रहा है। वो बीच बीच में उसे ठीक ढंग से काम करने की हिदायत देती हुईं आलू छीलने में लगी हैं।मामाजी रसोई में आ मामीजी को नाश्ते में आलू के परांठे तैयार करने को कहते हुए खुद चाय बनाने की तैयारियों में जुट जाते हैं।

अब तो सुमेधा की मम्मी भी तैयार होकर आ गई हैं। रसोईघर में खड़े खड़े सभी इधर उधर की बातें करने में मशगूल हो जाते हैं।सुमेधा की इन बातों में को दिलचस्पी नहीं। वो टीवी ऑन करती है। कहीं कुछ खास नहीं आ रहा। खबरें भी कुछ खास नहीं। एक लोकल चैनल पर पुराने गाने आ रहे हैं। हल्की आवाज़ में वो चैनल लगा सुमेधा नहाने की तैयारियों में जुट जाती है।बैग से ब्रश, कपड़े और तौलिया निकाल वो बाथरूम की ओर बढ़ रही है।

"बेटा, आपने चाय नहीं पीनी पहले ?" मामाजी पूछ रहे हैं।

"नहीं मामाजी, एक ही बार पीऊंगी...नाश्ते के साथ..."

"ठीक है, फिर आओ बता दूं बाथरूम में शैंपू वगैरह कहां रखा है।'' मामाजी उसके साथ बाथरूम में आएं हैं। ये गीज़र का प्लग, इस नल में गर्म पानी, इसमें ठंडा, यहां से शावर...सबकुछ समझा रहे हैं। अब मामाजी ने कपबोर्ड खोल दिया है...माइल्ड शैम्पू, क्लीनिक प्लस, साबुन, तेल, बॉडी ऑयल...सब समझा रहे हैं।

" अच्छा बेटा, और किसी चीज़ की ज़रूरत हो तो आवाज़ दे देना," मामाजी कहते हुए वापस रसोई में चले गए हैं।सुमेधा बाथरूम का दरवाजा बंद कर बैठी सोच रही है। कितने कैयरिंग हैं ना मामाजी। कितना ख्याल रखते हैं सब का....और घर की हर चीज का पता है उनको। उस पर से क्या पर्सनैलिटी है...हर दम एकदम फिट।

मामा की दीवानी सुमेधा लेकिन आखिर ऐसा क्या होता है कि सुमेधा के मन में मामा के प्रति भर जाती है वितृष्णा। जानने के लिए कल पढ़िए कहानी की अगली और आखिरी किस्त

Saturday, September 13, 2008

मार्जिन पर कोई सड़ता नहीं

हाशिए पर--आखिरी किस्त
उदयराज
हाशिए पर कहानी पिछली दो किस्तों 'मुख्यधारा' से भटका एक कॉमरेड और दो कॉमरेड्स, एक असफल प्रेम कहानी में आपने पड़ा श्यामल और दीपक के वैचारिक मतभेद। आज पढ़िए कहानी की तीसरी और आखिरी किस्त

''दीपक, तुमसे हम मित्र की तरह मिलने आया और तुम हमको ये सब शिक्षा देने लगा। हमको तुम नया आदमी समझता है क्या? हम भी तुम्हारा माफिक पार्टी किया। बड़ा बड़ा बोई (किताब) पढ़ा। जिस गरीब का तुम पक्ष लेता है, वो अपना भूख मिटाने का वास्ते, अपना हवस का वास्ते तुमको-हमको सबको बेच खाएगा। तुम तो खाली बोई में पड़ा रहता है। वास्तविक दुनिया का कोई चाल तुमको कैसे समझ में आएगा? मिल का यूनियन देखो। एक दो दिन हड़ताल हुआ नहीं कि सब गरीब लोग भागने लगा। कुत्ता माफिक उस मिल को छोड़ दूसरा मिल में जाकर रिरियाने लगा। नहीं तो ठेकेदार के पास में जाकर काम करने लगा। अइसा लोग से क्या होगा?''
''दादा, गरीब तो गरीब इसीलिए है कि उसके पास न तो सोच की धारा है न ही सोच की धारा बनाने की स्थिति। इस स्थिति को बनाने और उन्हें मुहैया कराने की लड़ाई हमारी लड़ाई है। किसी चीनी या रूसी रास्ते से नहीं। अपने रास्ते से बिल्कुल देसी रास्ते से। जिस आस्था और विश्वास के लोग कायल हैं--उसी आस्था और विश्वास को रखते हुए दृष्टि में परिवर्तन लाना है।''
''दीपक, इसीलिए हम तुम्हारा पास आया है। देखो, तुम विचार करता है--हमको बढ़िया-बढ़िया स्लोगन दे सकता है। तुम्हारे जैसा लोगों का हमारा पास एक पूरा टीम है। पर तुम्हारा माफिक वो सब भी कुछ कुछ टेढ़ा ही है। तुम हमारा मित्र है। हम उस सबका साथ तुमको भी सह लेगा...। तुम पाजी मार्जिन पर क्यों सड़ना चाहता है?''
'' मार्जिन पर कोई सड़ता नहीं दादा। बल्कि तुमलोगों की मुख्य प्रवाह का आधार बनता है। मैथ तो बनाया ही होगा तुमने स्कूल डेज में। मार्जिन पर ही मौलिक क्रियाएं गुणा, भाग, जोड़, घटाव की जाती है। बाकी पेज तो रिजल्ट ही रिजल्ट का मकड़जाल होता है।''
''लेकिन तुम्हारा वैचारिक क्रांति मार्जिन पर नहीं आ सकता। प्याले में तूफान कहां से आएगा?''
''मार्जिन तूफ़ान के लिए नहीं होता। तूफान आने पर लोग बचने के लिए किनारे चले जाते हैं। सुरक्षा के लिए ताकि असमय और अनीतिवश आए तूफ़ान से बचाकर अपने को नए संघर्ष में लगा सकें।''
''तो यही तुम्हारा फैसला है?''
''क्या?''
''कि तुम हमारा साथ नहीं आएगा?''
''यदि तुम आज की मुख्यधारा के साथ हो तो....।''
''तुम्हारा मार्जिन पर हमारा वास्ते जगह रहेगा?''
''दुर्भाग्य को निमंत्रण ने दें आप।''
''उसी दुर्भाग्य से तुमको बचाना चाहता है हम।''
''मगर, यह तो हमारा सौभाग्य है।''
''क्या?''
''बने रहना--वहीं हाशिए पर।''

Friday, September 12, 2008

दो कॉमरेड्स, एक असफल प्रेम कहानी

कहानी
हाशिए पर--भाग 2
उदयराज

कल आपने कहानी के पहले भाग 'मुख्यधारा' से भटका एक कॉमरेड में पढ़ी दो कॉमरेड्स के बीच बहस। श्यामल दीपक को मनाने की कोशिश करता है लेकिन क्या दीपक अपने आदर्श से हटेगा? जानने के लिए पढ़िए बाकी कहानी

''हम तुमको कापुरुष(कायर) बोलता था। बोला था हम कि दूब घास के माफिक बिछा रहेगा तो ओस का बूंद भी दबा देगा। और हम गलत तो नहीं बोला था। आज हमको देखो। कोई दबाने की बात सोच भी नहीं सकता। हम लोगों का कितना क्लब खोल दिया। जहां जहां यूनिटी नहीं था, वहां-वहां यूनियन बनवा दिया।''
''हां, श्यामल दा, हर तंत्र के अपने ताने-बाने होते हैं। तुमने भी ये खाते पूरी कर दी। याद है वह लड़की? वही लड़की, जिस पर मैं और तुम दोनों ही मन ही मन फिदा हो गए थे...। अपनी खिड़की के पास खड़े हम दोनों उसे दूसरी खिड़की के पास कपड़े उतारते देखते, उसके बदन के सलोनेपन के रेशमी रेशों से सरकती हुई हमारी आंखें हर गोपन अंगों पर ठहर ठहर जाती थीं और गर्मी में भी हम ठिठुर-ठिठुर जाते थे। इस सिहरन में एक चिंगारी सी चिनक उठती थी, जब हम एक दूसरे को अपने जैसी ही स्थिति में पाते। मैं तो सहज हो जाता लेकिन तुम एकदम से झपट पड़ना चाहते थे।"
''हां, लेकिन वह लड़की तो हम दोनों को धोखा दे गया।"
'' दोनों को नहीं, सिर्फ तुम्हें श्यामल दा। तुमने उस पर अधिकार मान लिया था अपना--अकेले अकेले। प्यार की खासियत है अधिकार सहज सा।''
''वो चीज ही ऐसा था। कितना रक्तो भर देता था उसका देखना।''
''हां, हर मादक चीज़ मादकता फैलाती है पर होती बड़ी क्षणिक है। बस यही सोच सहजता है।''
'' तुम साला पाजी (बदमाश) आदमी है। तुम इतना धैर्य कहां से पा गया?"
''इसीलिए तो हाशिये पर हूं।''
''तुम लेखक है न। बात बनाना तुमको बहुत आता है।''
'' लेकिन बातें तो जोश भरी तुम करते हो कॉमरेड। ताली बजवाते हो, जोश जमाते हो और ...।''
''दीपक, कॉमरेड तो तुम भी हो। तुम तो सब समझता है। जब पावर का लड़ाई चलता है तब असली उद्देश्य पाना कितना मुश्किल है। है न?"
'' मुश्किल तो है पर असंभव नहीं श्यामल दा। इस देश को जब काम की जरूरत है, तब हड़ताल होती है। हड़ताल एक कारगर तरीका, जिसे आए दिन उपयोग में ला लाकर हम कहां पहुंच गए।''
''हड़ताल का यूज ज्यादा हुआ और कभी कभी बेकार भी हुआ। हम मानता है। लेकिन हमारा आदमी लोग ज्यादा होशियार भी बन गया। ये तो तुम भी मानेगा?"
''मानेगा क्यों नहीं? रोज ही तो भुगत रहा हूं। आदमी के सामन्ती विचार और आचरण नए नए रूप में सामने आ गए हैं। पुराने महल ढहे तो नये महल समस्त सजते हैं--जैसे घरों के पर्दे बदल गए हों।''
''तुम हिप्पोक्रेट है। झोला लटकाए कॉमरेड को स्कूटर पर बैठा देख कर तुम जल गया है--कार में चलता देख कर सुलग गया है। है न?''
''हां, कितनी जानों के जनाजे पर उगी हैं ये बेलें...। हां,क्योंकि मैंने माना है कि कॉमरेड वह है जो सड़क के आदमी के पास है, साथ है। किसानों के पांव के छाले, उसके अपने हैं। मजदूर के घर के चूल्हे का धुआं उसकी सांसहै---बिना किसी भेद के, बिना भाव के। कॉमरेड के जीवन का सपना सबके लिए होता है, सिर्फ अपने लिए नहीं। श्यामल दा, तुमने क्लब खोले हैं, तो उनसे गुंडागर्दी बढ़ी है, बलात्कार बढ़े हैं। कितने गरीबों को फायदा पहुंचा है इन क्लबों से?''
''दीपक, तुम यूनिटी के अगेन्स्ट बात करता है। अरे, दुनिया कासब कॉमरेड यूनिटी का बात, ऐक्यो की बात बताता है। तुम भी इसी ऐक्य (एकता) के लिए चिंता करता है। बैठने के लिए एक जगह होने से विचार-विमर्श का अवसर मिलता है।''
''श्यामल दा, तुम्हारे इस क्लब में कैसे लोग आते हैं? अधिकतर क्लब्स में बेकार युवकों का गिरोह अंटा पड़ा है। तुम्हारे संरक्षण का लाभ उठाकर ये लोग समाज में एक नई रस्म चलाते हैं। आतंक का रस्म। हर छोटी बड़ी पूजा के लिए चंदा उगाहना ही जैसे इनका मुख्य काम है। चलो, इस पर भी ऐतराज नहीं लेकिन चंदा उगाहने के लिए जिस आतंक का सृजन किया जाता है--क्या वह आतंक भी हमारी पार्टी के सिद्धान्तों में सूचीबद्ध है? गरीब हो या अमीर, ठेलेवाला हो या ट्रक वाला, पैदल चलने वाला हो या कार वाला, इन तथाकथित कॉमरेड नौजवानों से सभी एक समान आतंकित रहते हैं। क्या कहेंगे आप इसे?"
''नौयुवक लोग है न। उमंग में थोड़ा ज्यादा बढ़ जाता है। अरे, हम तुम भी तो नौयुवक था। छोटा छोटा बात में फायर हो जाता था। जैसे हमारा फायर होने से अभी सब कुछ बदल जाएगा। लेकिन क्या बदला? गरीब और गरीब हुआ, अमीर और अमीर हुआ...।''
''हां, इसके साथ कॉमरेड्स भी तो अमीर हो गया और उसका संघर्ष गरीब हो गया।''
'' तो खराब क्या हो गया? कॉमरेड आदमी नहीं है क्या? क्या उसका आशा-आकांक्षा सही नहीं है?''
''है। साधन सम्पन्न होना कॉमरेड के लिए सुअवसर की बात है लेकिन साधारण आदमी सा नहीं। यहीं तो हम लोग सब भूल गए। जिन्हें साथ लेकर चले, वो रहा में छूटते गए और नए लोग मिलते गए, जिन्होंने अपने सपने और अपनी आशा हम पर उतार फेंकी और हमने अंधेरे में ही सही, उसे अपनाने में गर्व समझा। आदतन आवाज़ तो कॉमरेडी ही रही लेकिन आचरण, जीवन शैली वहीं हो गई, जिसका शायद हमसे बड़ा विरोधी कोई नहीं था। कितना दोहरा चरित्र हो गया हमारा। गरीबों-असहायों को हमने यही दोमुंही चरित्र दिया है।''
दीपक के आदर्श भरी बातों का क्या असर होगा श्यामल का? क्या वो सत्ता छोड़ दीपक के साथ आ जाएगा या दीपक को भी अपने साथ तथाकथित मुख्यधारा में जोड़ लेगा? जानने के लिए पढ़िए कहानी की अगली और आखिरी किस्त कल।

Thursday, September 11, 2008

'मुख्यधारा' से भटका एक कॉमरेड

कोलकाता के युवा कथाकार उदयराज की जितनी पकड़ राजनीतिक और शहरी मानसिकता पर है, उतनी ही पकड़ ग्रामीण संवेदनाओं पर भी है। उनकी कई कहानियां कई पत्र-पत्रिकाओं में छप चुकी हैं। पेशे से अध्यापक उदयराज इरा पत्रिका के संपादक भी है। पेश है यहां उनकी कहानी हाशिये पर
हाशिये पर--भाग एक




''हैलो, कौन?''
''हैलो, मैं श्यामल बोलता। तुम्हारे पीछे से।''
''अरे, श्यामल दा। तुमने इस नाशुक्रे को कैसे याद किया?''
''नहीं दीपक, तुम ऐसा मत बोलो। वो हमारा मिस्टेक था।''
''नहीं, श्यामल दा, कुछ तो सच, अ बिट ट्रूथ तो रहा ही होगा न।''
''हम तुम्हारा बात आज भी सबको बोलता। क्या बोला था तुम वो दही-दूध वाला बात?"
'' यही कि दही में दूध मिलाने से दही ही बनेगा।"
'' हां, तुम एकदम सत्य बोला था। हम अब समझ गया है। हम तो दूध का बाउल (कटोरा) को सागोर (सागर) समझ लिया था। और सोचा था कि थोड़ा सा दही में सागोर भर दूध मिला देगा तो दही का पता नहीं रहेगा।''
''होता है, जोश में ऐसा ही होता है। एक उम्र एक विशेष वयस की शोभा होता है जोश भी। इस जोश के उपयोग यानी यूज के लिए होश भी तो चाहिए न। मगर गड़बड़ यहीं है। जिसके पास जोश होता है उसके पास होश नहीं होता और होश है जिसके पास उसके पास आईना नहीं है।''
''दीपक, यार तुम सब कुछ भूलकर एक बार फिर आ जाओ न।''
''श्यामल दा, याद है न तुम्हें? तुमने मुझे इसी होश की बात पर झिड़क दिया था। कहा था-मैं और मेरे जैसे लोगपीछे रह जाते हैं। मुख्य धारा में कभी नहीं मिल सकते। मैं तो आज भी उसी राह पर पड़ा हूं। तुम बताओ, मुख्य धारा की हलचल।''
''तुम टेढ़ा का टेढ़ा ही रहेगा। सुनो, मुख्य धारा में हम आया ता ''पावर'' पाने के वास्ते। सो हमने पाया। आज हमारा पास गाड़ी है, अपना घर है, दस ठो लोग आगे-पीछे है। हम अकेला नहीं चलता।''
''तुम्हारे साथ जो चले थे, क्या सब के सब तुम्हारे जैसे ही हैं?''
''तुम इतना काहे को सोचता है दीपक? हम मानता है कि सब लोग हमारे साथ वाला हमसे अच्छा था और एक बात पर मिट जाने वाला भी था लेकिन सबका भाग तो एक जइसा नहीं होता...।''
''दादा, एक कॉमरेड के मुंह से भाग्य की बात? यह क्या मुख्य धारा का चमत्कार है?
''हम भाग्य नहीं भाग बोला। भाग माने शेयर, हिस्सा।''
''शब्द बदलने से भाव नहीं बदलता दादा। भाग्य या भाग कुछ के हिस्से होने के पीछे तो साजिश एक ही है, है न?"
''तुम भी समझा, हम भी समझा --इस साजिश को।तुम इसको विचार से खत्म करना चाहा। हम इसमें घुस कर इसको समझ कर इसको शेष करना चाहा...।"
"परन्तु तुम आज खुद ही इस साजिश की मजबूत दीवार बन बैठे क्योंकि तुम हिम्मत वाले थे, क्योंकि तुम आधार वाले थे, क्योंकि तुम नेतृत्व की भाषा जानते थे...क्योंकि तुम इसी साजिश रचने वाली जाति के थे...।''
''तुम कुत्ते की दुम सा सीधा नहीं हो सकता। पता नहीं क्या सोचता है, क्या-क्या बोलता है...भाषा, जाति--ये सब क्या है? हम तो ये सब फिजूल मानता है.।''
''और इसीलिए इसकी चलने देते हो, जिसके चलते रहने से तुम सुरक्षित हो...।''
''दीपक, हम और तुम एक साथ ज्वायन किया था...।"
''हां...तब हमारा दल सत्तासीन नहीं था....सर्वहारों की आशा था, उनकी उम्मीदें की लहरें थीं। उनका स्थान था। उनके लिए कुछ कर पाने का उन्माद था।''
''लेकिन तुम तो तब भी हमको और दूसरा साथी को समझाता था। हमको धीरे-धीरे लोगों के मन में घुसना चाहिए। जोश में वो सब नष्ट नहीं करना चाहिए, जिससे हम एक दूसरे से बंधता है.. यही सब तो बोलता था तुम..।''
''हां''

क्या मान जाएगा दीपक? जानने के लिए पढ़िए कहानी का अगला हिस्सा कल।

Wednesday, September 10, 2008

आखिर लौट आई सुंदरी

कहानी
हमसफ़र--आखिरी किस्त
कल आपने हमसफ़र के भाग-3 बुढ़ापा जीना चाहते हैं घोष बाबू में घोष बाबू की जिंदगी के दर्द को जाना। आज पेश है कहानी की चौथी और आखिरी किस्त

थोड़ी ही देर में मकान में अंधेरा था। सिफ उनके कमरे की बत्ती जल रही थी। खाने का कार्यक्रम अब रद्द हो चुका था। भूख मर चुकी थी। नींद का दूर-दूर तक नामो-निशान नहीं था। दूर-दूर तक सुंदरी का भी कोई नामो निशान नहीं था। अब दिमाग सोचने की हालत में नहीं था। जब अपना बेटा अपना नहीं हुआ तो वे सुंदरी के लिए इतना परेशान क्यों हो रहे हैं? उन्होंने खुद को समझाने की कोशिश की। थोड़ी तसल्ली मिली लेकिन फिर थोड़ी देर बाद घूम फिर कर वहीं चिन्ता, वही परेशानी। क्यों न किसी की मदद ली जाय? किसे फोन करें? आशीष को फोन कर फायदा नहीं। एक तो इतनी रात वह उतनी दूर से आयेगा नहीं और ऊपर से नाराज भी होगा। किसे फोन करें? अब अफसोस हो रहा था। पहले ही किसी को फोन कर सुंदरी को ढूंढने की कोशिश करनी चाहिए थी लेकिन रात के साढ़े बारह बजे किसे फोन करें। किसी को फोन करने का इरादा छोड़ दिया।

नहीं अब किसी पर इस तरह निर्भर नहीं होना है। अपनी जिंदगी है, अकेले चैन से जीना चाहिए। सुंदरी के चक्कर में एक दिन की जिंदगी बर्बाद हो गई थी। वे लेट गये। नहीं आज से वे अकेले हैं। अकेले जियेंगे। उन्होंने जोर से आंखें बंद कर ली। सोने की कोशिश करने लगे। लेकिन आंखें बंद करते ही सुंदरी ज्यादा प्रबल रूप से उनकी आंखों के सामने आ गई। उन्होंने और जोर से आंखें बंद करने की कोशिश की। सुंदरी और साफ़ नजर आने लगी। उन्होंने घबराकर आंखें खोल ली। ये सुंदरी उनका पीछा क्यों नहीं छोड़ रही है? तभी आवाज आई--म्याऊं, म्याऊं....... वे तंग आ गये। अब कान भी धोखा देने लगे? लेकिन नहीं... फिर आवाज आई--म्याऊं.....म्याऊं........इसका मतलब है सुंदरी आ गई थी। घोषबाबू तेजी से दरवाजे की ओर बढ़े उसके स्वागत के लिए।

Tuesday, September 9, 2008

बुढ़ापा जीना चाहते हैं घोष बाबू

कहानी
हमसफर--भाग-3
हमसफर कहानी के दूसरे भाग क्या ऐसे होते हैं बेटे? में आपने अब तक की कहानी पढ़ी। अब जानिए आगे का हाल

तकलीफ बढ़ गई। दवा टेबल पर रखी थी। लगभग रेंगते हुए वे टेबल तक पहुंचे। सार्बिटेट लिया और जीभ के नीचे दबा लिया। वहीं फर्श पर ही लेट गये। आंखें बंद कर ली। पसीने से लथपथ हो रहे थे। ऐसे मौकों पर अकेलापन खलता था। हालांकि घोष बाबू कभी भी सार्वजनिक रूप से यह मानने को तैयार नहीं थे कि बेटे-बहू के जाने से वे अकेले हो गये हैं। पिछले दिनों गये थे एक विवाह समारोह में. पुराने दोस्तों की महफिल जमी हुई थी। किसी ने कह दिया--घोष दा, आजकल तो बहुत अकेले हो गये हैं आप?तत्काल विरोध किया था घोष बाबू ने--अकेला? नहीं तो। किसने कह दिया आपको?---आशीष तो चला गया न आपको छोड़कर?--- छोड़कर गया कहना सही नहीं होगा। अपना फ्लैट खरीद लिया। कितना दिन खाली रखेगा। और मुझे तो तुम जानते ही हो। अपना जन्म स्थान छोड़कर मैं नहीं जा सकता लेकिन मैं अकेला नहीं हूं।

और फिर शुरू हो गया सुंदरी का बखान। ऐसा करती है, वैसा करती है। हमेशा मेरे साथ रहती है। यह खाती है, वह खाती है, सुबह गोद में नहीं लूं तो नाराज़ हो जाती है। पास नहीं फटकती है। मनाना पड़ता है। तबीयत खराब हो तो छोड़कर कहीं नहीं जाती। पास बैठी रहती है। हर पीड़ा, हर दुख समझती है। इतना अच्छा साथ सिफ सुंदरी ही दे सकती है और कोई नहीं। सुंदरी का बखान एक बार शुरू हुआ तो फिर दूसरे किसी विषय पर बात नहीं हो सकती थी। बस सुंदरी और सुंदरी। हक़ीकत यह थी कि जब से सुंदरी उनके जीवन में आई थी, घोषबाबू का सबसे प्रिय विषय वही थी।कोई महफिल हो, कोई आयोजन हो---चार लोगों के बीच बैठते किसी न किसी बहाने घोष बाबू के जबान पर सुंदरी का नाम आ ही जाता और फिर शुरू हो जाता सुंदरी का गुणगान। अब पीठ पीछे तो लोग मजाक भी उड़ाने लगे थे। खुद आशीष भी सुंदरी को लेकर मजाक करने से नहीं चूकता। घोष बाबू को सब पता था लेकिन उन्हें किसी की परवाह नहीं थी।

उम्र के इस पड़ाव पर वे किसी की परवाह करना भी नहीं चाहते थे। अपने हिस्से की थोड़ी सी ज़िंदगी अपने ढंग से जी लेना चाहते थे। अब तक की तो ज़िंदगी उनकी अपनी ज़िंदगी रही नहीं। गरीबी की वजह से बचपन का हिस्सा मां-बाप-घर को देखने में गया। जवानी बेटे में गया। अब बुढ़ापा अपना है। अपने ढंग से जीना है। वैसे भी बूढ़ों की ज़रूरत इस समाज में किसी को है भी नहीं लेकिन घोष बाबू समाज की आंखों में अंगुली डालकर यह दिखा देना चाहते थे कि बूढ़े बोझ नहीं। वे अभी भी बोझ उठा सकते हैं। अपनी ज़िंदगी खुद जी सकते हैं। बस सुंदरी जैसी किसी साथी का साथ चाहिए। निस्वार्थ साथ।

घोष बाबू अब राहत महसूस कर रहे थे। सॉर्बिटेट ने अपना काम किया था लेकिन साइड अफेक्ट की वजह से सिर भारी हो गया था। सिर दर्द वे झेल जाते थे। साइनस के मरीज थे। अक्सर जब वे दफ्तर से लौटते, साइनस का दर्द उनके साथ आता था। कमला परेशान हो जाती थी। सिर पर बाम लगाती थी। चाय बना कर देती थी। सारे जतन करती। कभी-कभी घोष बाबू मजाक में कहते भी थे कि यह साइनस मुझे बहुत प्यारा है। कम से कम इसी बहाने तुम ज्यादा से ज्यादा वक्त तक मेरे करीब तो रहती हो। घोष बाबू को साइनस से प्यार हो गया था। साइनस के दर्द को वे सीधे कमला के प्यार से जोड़ कर देखते थे लेकिन अब कमला नहीं है। अब साइनस भी नहीं है। कमला के जाने के बाद बड़ी बड़ी बीमारियों का हमला हुआ तो पता नहीं साइनस दुम दबा कर कहां भाग गया। घोष बाबू ने इसे अच्छा ही माना वरना वे साइनस के दर्द से कम कमला की कमी से ज्यादा परेशान होते।

घड़ी ने बारह की घंटी बजाई। मकान की सारी बत्तियां जल रही थीं। रोशनी से पूरी तरह नहा रहे मकान में घोष बाबू को अंधेरा ही अंधेरा नज़र आ रहा था। शायद इतना अकेलापन उस दिन भी महसूस नहीं हुआ था, जिस दिन आशीष घर छोड़ कर गया था। याद आ गया वो दिन, जिस दिन कमला आखिरी विदाई ले रही थी। श्मशान से लौटने के बाद घोष बाबू ने अपने अन्दर के सन्नाटे और अकेलेपन को महसूस किया था। घर में रिश्तेदारों की भीड़ थी लेकिन उस दिन घोष बाबू अकेले थे। यह अकेलापन दूर नहीं हुआ। आज भी वह अकेलापन उन्हें डराता है। सुन्दरी ने थोड़ा साथ निभा दिया था लेकिन आज वह भी नहीं थी। बुढ़ापे की आखिरी विश्वसनीय साथी। अन्दर का अकेलापन और डरावना लगने लगा । कितनी हसरत से यह घर बनाया था घोषबाबू ने लेकिन आज यह सिफ मकान है। चार दीवारों से घिरा, छत से ढंका एक मकान। घर तो कमला अपने साथ लेकर चली गई थी। घोष बाबू ने कोशिश की थी कि घर घर बना रहे लेकिन थोड़ा बहुत जो घर बचा हुआ था, उसे आशीष नन्हीं के साथ लेता गया था।

घोष बाबू उठ कर खड़े हुए। शरीर उठने की इजाजत नहीं दे रहा था। ऐसे मौकों पर कमजोरी शरीर पर हावी हो जाती थी। बेवजह बत्तियों का जलना घोष बाबू को कभी भी पंसद नहीं रहा। इसे लेकर कई बार आशीष-बहू से चखचख हो चुकी है लेकिन पुरानी आदत से मजबूर। आज बीमारी की इस हालत में भी उन्हें बत्तियों का बेवजह जलना नागवार गुजरा।

क्या सुंदरी लौट आई या उसने भी दे दिया घोष बाबू को धोखा? कौन है ये सुन्दरी? कल पढ़िए कहानी की आखिरी किस्त।
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Monday, September 8, 2008

क्या ऐसे होते हैं बेटे?

कहानी
हमसफ़र-भाग 2
कल आपने कहानी के पहले भाग में पढ़ा कि सुंदरी के चले जाने से घोषबाबू कितने परेशान हो गए। आज जानिए आगे का हाल

ऐसा तनाव इससे पहले एक बार ही झेला था उन्होंने। आशीष तब छठीं कक्षा का छात्र था। शाम को सात बजे जब वे दफ्तर से घर लौटे थे तो कमला को बिलखते हुए पाया था। ---क्या हुआ? पता चला आशीष अभी तक स्कूल से नहीं लौटा है। वे भी सन्न रह गये। साढ़े चार बजे तक स्कूल से लौट आने की बात थी लेकिन शाम सात बजे तक नहीं लौटा? कमला उसके सभी साथियों से पूछताछ कर चुकी थी। सभी घर लौट चुके थे और किसी को भी आशीष के बारे में जानकारी नहीं थी। सबसे चौंकाने वाली बात तो अमल ने बताई थी कि वह लंच ऑवर के बाद से ही गायब है। अर्थात सेकेंड हॉफ में वह स्कूल में नहीं था। आस पड़ोस के कई लोग घर में आ गये थे। सभी सांत्वना दे रहे थे---अपनी बुआ के यहां चला गया होगा, अपने चाचा के यहां चला गया होगा, टयूशन पढ़ने गया होगा,किसी दोस्त के यहां गया होगा लेकिन घोष बाबू का मन तो किसी अशुभ बात के अलावा और कुछ सोच ही नहीं पा रहा था। अपहरण की घटनाएं काफी बढ़ गई थीं। कहीं किसी ने उसे अगवा तो नहीं कर लिया लेकिन उनकी माली हालत इतनी अच्छी नहीं थी कि कोई फिरौती के लालच में उनके बेटे का अपहरण करता। थोड़ा शकुन मिला। उन्हें विश्वास था कि किसी ने उसका अपहरण नहीं किया होगा। फिर? कहीं किसी सड़क दुर्घटना में..........? नहीं, नहीं ऐसा नहीं हो सकता। कमला के बार-बार मना करने के बावजूद उन्होंने आशीष के लिए साइकिल खरीद ली थी। आशीष काफी खुश हुआ था साइकिल पाकर और घोष बाबू को रोज-रोज के बस भाड़े से राहत मिली थी। अब वह साइकिल से ही स्कूल जाता था। एक के बाद एक अनिष्ट आशंकाएं मन में आ रही थीं। किसी ने थाने जाकर रिपोर्ट लिखाने की सलाह दी। पता नहीं क्यों इस सलाह पर घोषबाबू के हाथ-पांव ठंडे पड़ गये थे। थाने का नाम आते ही उन्हें लगा कि कोई बहुत बड़ा अनिष्ट हो गया हो।उनका मन नहीं माना। तय हुआ कि पहले सारे रिश्तेदारों के यहां ढूंढ लिया जाय। घोषबाबू अपनी बहन के यहां निकल गये, पास-पड़ोस के एक दो लोग उनके साथ हो लिये। एक दो लोग दूसरे रिश्तेदारों के यहां चले गये। कमला घर में रोती रही। कमला के लिए वक्त काटना मुश्किल हो गया था। तनाव का वक्त काटे नहीं कटता। आज वक्त भारी पड़ रहा था।

आशीष मिला था। अपनी बुआ के यहां। स्कूल से सीधे बुआ के यहां चला गया था लेकिन बुआ से यह नहीं बताया था कि उसके यहां आने की सूचना घरवालों को नहीं है। इसलिए बुआ निश्चिंत थीं। पहले भी वह बुआ के पास आकर एक दो दिन रह कर जाता था। तब रात के दस बज रहे थे। घोष बाबू को देख कर आशीष सकते में आ गया था। उसे लगा अब पिटाई होगी। वह जाकर बुआ के पीछे छिप गया। बुआ भी माजरा समझ गई लेकिन घोष बाबू को गुस्सा नहीं आया। वह रो पड़े। उन्होंने आशीष को सीने से चिपटा लिया। उस रात तो मानो कमला और घोष बाबू को नया जीवन मिला था।

अब आशीष बड़ा हो गया है। बाप बन गया है। अब वह छठवीं कक्षा का आशीष नहीं है। इसलिए उसे देखे महीनों गुजर जाते हैं लेकिन घोष बाबू को वह तड़प महसूस नहीं होती, जो उस रात हुई थी। याद आती है, आंखों में आंसू भी आते हैं लेकिन वह तड़प। क्या बेटे जब बड़े हो जाते हैं तो बाप-बेटे के सम्बन्ध की संवेदनशीलता खत्म हो जाती है? क्या इसी दिन के लिए बेटे की मन्नतें मांगते हैं लोग? क्या इसी दिन के लिए लोग बेटा पैदा होने पर जश्न मनाते हैं? मिठाइयां बांटते हैं? क्या ....? क्या ....?? क्या....??? कितने क्या लेकिन किसी भी कया का जवाब नहीं। कभी-कभी क्या के चक्रव्यूह में बुरी तरह फस जाते थे घोष बाबू और तब उन्हें लगता कि चाहें वे लाख नकारे लेकिन वह तड़प आज भी है और शायद जब तक शरीर में सांस है, तब तक वह तड़प रहेगी। क्या आशीष के मन में भी उनके लिए ऐसी तड़प आती होगी? क्या वह कभी यह सोच कर दुखी होता होगा कि पापा अकेले हैं? क्या यह सोचकर वह परेशान होता होगा कि अगर पापा को कुछ हो गया तो कौन संभालेगा उन्हें? अकेले पापा और दिल की बीमारी? क्या वह परेशान होता होगा? शायद नहीं। अगर परेशान होता तो कम से कम दस दिन में एक बार ही सही ख़बर तो लेता। यहां तो महीनों बीत जाते हैं। तीन महीना पहले आया था वह। उसके बाद से कोई ख़बर नहीं। उन्होंने सर झटक दिया। बीमारी से उन्हें डर नहीं था। बीमारी उन्हें अच्छी लगती है। कम से कम कोई चीज तो है, जो उनका साथ कभी नहीं छोड़ती। ऐसी बीमारी से क्या डरना? क्यों परेशान होना? बेटे से तो अच्छा बीमारी है। बेटे ने साथ छोड़ दिया, बीमारी ने नहीं । सुंदरी ने भी अच्छा साथ निभाया था लेकिन आज? कहां चली गई वह? घबराहट होने लगी। ज्यादा परेशान होना, ज्यादा सोचना मना था उनके लिए लेकिन आज सुंदरी ने तो परेशान किया ही, पिछले जीवन के तनावों में ढकेल दिया था। सीने में हल्का दर्द होने लगा था। वह समझ रहे थे। दिल का दौरा पड़ सकता है। पसीना भी आने लगा था। वे घबड़ा गये। घर में अकेले थे। इससे पहले कि कुछ हो तत्काल दवा लेनी ज़रूरी है। वे बिस्तर से उठे लेकिन पांव झनझना रहा था। बहुत देर तक एक ही करवट सोने की वजह से कोई नस दब गई होगी। चल नहीं पाये। वहीं लड़खड़ा कर बैठ गये।

तो क्या सुंदरी भी घोष बाबू का साथ छोड़ देगी? कौन है ये सुंदरी? क्यों परेशान कर रही है घोषबाबू को? जानने के लिए पढ़िए कहानी का अगला भाग कल।

Sunday, September 7, 2008

कहानियों पर केंद्रित ब्लॉग आपकी सेवा में

दोस्तो,
भूख ब्लॉग को आपका जो प्यार और सहयोग मिला, उससे उत्साहित होकर ही ये नया ब्लॉग शुरू किया गया है। ये ब्लॉग खासकर उन पाठकों को ध्यान में रखकर शुरू किया जा रहा है, जिनकी दिलचस्पी कहानियों में है। हिंदी में अन्य विधाओं के सभी ब्लॉग हैं लेकिन केवल और केवल कहानियों के लिए कोई ब्लॉग नहीं था। ये ब्लॉग इसी कमी को दूर करने की कोशिश करेगा। हिंदी और दूसरी भाषाओं की कहानियों के अलावा इसमें कहानी की सभी बातें होंगी। समकालीन कहानी की आलोचना से लेकर कहानी संग्रह और उपन्यासों की समीक्षा तक। अगर आप कहानीकार हैं और आपकी पुस्तक है तो आप समीक्षा के लिए पुस्तक की दो प्रतियां निम्न पते पर भेज सकते हैं--
सत्येंद्र प्रसाद श्रीवास्तव
गुलमोहर अपार्टमेंट,
फ्लैट नंबर-जी-2, प्लॉट नंबर-156,
मीडिया एंक्लेव, सेक्टर-6
वैशाली, ग़ाजियाबाद
उत्तर प्रदेश

इसके अलावा आपकी कहानियों का भी इंतज़ार रहेगा। कहानी आप उक्त पते पर या satyendrari@gmail.com पर भी भेज सकते हैं। आपकी कहानियों का भी इंतज़ार रहेगा। पूरा विश्वास है कि आपका सहयोग और प्यार मिलेगा। आज पेश है मेरी ही एक कहानी--हमसफ़र

कहानी
हमसफ़र

पूरा मकान भांय-भांय कर रहा था। सुंदरी का कोई पता नहीं था। घोष बाबू परेशान थे। यह सुंदरी भी कभी-कभी बहुत तंग करती थी। उसकी हर ज़रूरत का ध्यान रखते थे घोष बाबू लेकिन फिर भी कभी कभी गच्चा दे जाती थी। सुंदरी के बिना तो पूरा मकान ही सूना लगता था और फिर घोष बाबू के लिए समय काटना मुश्किल हो जाता था। आज दोपहर से ही गायब थी। और अब रात के आठ बजने जा रहे थे। घोष बाबू चिंतित भी थे और गुस्सा भी। चिंतित कि कहीं उसे कुछ हो न गया हो। गुस्सा कि इस तरह गायब होने की ज़रूरत क्या है? वह अक्सर इसी तरह बीच-बीच में गायब हो जाती थी और फिर वापस आ जाती थी। अगर इस बार ऐसा हुआ तो उसे वह घर में नहीं घुसने देंगे। फसला पक्का हो गया था। आज सारी रात उसे घर के बाहर ही गुजारनी होगी। खाना भी नहीं मिलेगा। उसके लिए तली गई मछली उन्होंने फिज में रख दी । मुख्य दरवाजा बन्द कर दिया। सारी खिड़कियां बंद करने लगे लेकिन उस खिड़की तक पहुंचते-पहुंचते उनके हाथ अचानक थम गये, जिसका इस्तेमाल सुंदरी सबसे ज्यादा करती थी। रात भर बाहर रहने में उसे काफी तकलीफ होगी। इतनी बड़ी सजा उसे नहीं मिलनी चाहिए। हां, ड़ांट पिला देंगे लेकिन बिना खाये पिये रात भर घर के बाहर---नहीं!नहीं !! यह बहुत बड़ी सजा हो जायेगी। उन्होंने खिड़की खुली छोड़ दी। पलंग पर आ कर बैठ गये। गुस्से में इतना काम करते-करते वे बुरी तरह थक गये थे। उन्हें इस तरह भाग-दौड़ करनी भी नहीं चाहिए थी। सत्तर साल की उम्र, ऊपर से दिल के मरीज। वे लेट गये। गठिया की वजह से ठीक से चला भी नहीं जाता था। घुटने बग़ावत कर देते थे लेकिन फिर भी घोष बाबू अभी चल रहे थे, सक्रिय थे।लेटे-लेटे उनकी नज़र सामने की दीवार पर टंगी कमला की तस्वीर पर चली गई। हंसता हुआ जीवंत चेहरा। अगर आज वह होती तो उनके थक कर लेटने पर परेशान हो जातीलेकिन आज उनके लिए परेशान होने वाला कोई नहीं है। सुंदरी होती तो वह भी पास आकर लेट जाती। वह और कुछ कर पाये या नहीं अच्छा साथ ज़रूर निभाती है। उससे भी बल मिलता है। आशीष को गये छह महीने से ज्यादा हो गये थे। आशीष रहता तो नन्ही नातिन उन्हें घेरे रहती। उनकी परेशानी से वह सबसे ज्यादा परेशान होती थी। दादू-दादू करते हुए आगे पीछे। कभी-कभी इसके लिए भी उसे अपनी मां से डांट खानी पड़ती थी। और उस दिन तो हद हो गई जिस दिन सात साल की नन्ही के गाल पर उसके मां की पांचों अंगुलियां इसलिए छप गईं कि वह उनके पास से हटने का नाम ही नहीं ले रही थी। उस दिन उन्हें गुस्सा कम पीड़ा ज्यादा हुई थी। क्या इसी दिन के लिए लोग बेटा-बहू-नाति-पोते के सपने देखते हैं? इतने हसीन सपने का इतना डरावना सच ! लेकिन अब वे मुक्त हैं। आशीष ने उन्हें रोज-रोज के तनाव से बचा लिया । अलग फ्लैट खरीद कर चला गया। लगभग बीस किलोमीटर दूर। पुश्तैनी मकान में अब कोई तनाव नहीं। अब वे मुक्त हैं। अपनी ज़िंदगी है , अपनी मर्जी है, अपनी पेंशन है। सबकुछ ठीकठाक है लेकिन कभी-कभी मकान में पसरा सन्नाटा बहुत ही डरावना लगने लगता है।दीवार घड़ी ने नौ बजने का संकेत दिया। यह उनके रात के भोजन का समय है लेकिन बिना सुंदरी के भोजन? इस बात की कल्पना से ही उन्हें सिहरन होती थी। घर खाली होने के बाद से ही सुंदरी उनकी ज़िंदगी बन चुकी थी। चौबीसों घंटे की ज़रूरत थी सुंदरी। बिना सुंदरी के उनका कोई काम नहीं होता थाऔर वही सुंदरी आज दोपहर से गायब थी। कहीं कोई पता नहीं था। एक बार सोचा ढूढने निकलें लेकिन इतनी रात को गठिया वाले घुटनों को लेकर उसे कहां खोजेंगे? चुपचाप इंतजार करना ही बेहतर सोचा। आज खाने के कार्यक्रम में थोड़ा विलंब होगा। मासी (काम करने वाली महरी) खाना बना कर कब की जा चुकी थी। आज सुंदरी के लिए इंतजार करेंगे। खाने का कार्यक्रम कम से कम दस बजे तक के लिए स्थगित कर दिया उन्होंने।आशीष के जाने के बाद घर बिल्कुल सूना हो गया था। दिन नहीं कट रहे थे। ज़िंदगी में कोई तनाव नहीं था लेकिन था अकेलापन, पीड़ा, दुख। कमला की तस्वीर ने तब उनका बहुत साथ दिया था। मानो हर वक्त संवाद होता रहता था। चार दिन बाद अचानक सुंदरी उनकी ज़िंदगी में आई थी। और फिर उस दिन से वहीं की हो कर रह गई थी वह। सुंदरी को लेकर वे फिर जी उठे। उठते-बैठते-खाते-पीते बस सुंदरी। अब सुंदरी के लिए वे सप्ताह में कम से कम तीन दिन बाज़ार ज़रूर जाते क्योंकि बिना मछली के सुंदरी को खाना हज़म ही नहीं होता था। दोस्त-साथी तो चकित रह जाते थे। कहते थे---घोष बाबू, पहले तो आप इतना बाज़ार नहीं जाते थे लेकिन अब हर दूसरे दिन बाज़ार। घोष बाबू कहते---अरे, स्वस्थ रहता तो रोज जाता। सुंदरी को ताजा मछली पसंद है लेकिन क्या करूं शरीर इजाजत नहीं देता। इसलिए बेचारी को फिज में रखी मछली से काम चलाना पड़ता है। सुंदरी का रूटिन फिक्स था। सुबह ठीक आठ बजे--घोष बाबू चाय पीते थे और सुंदरी दूध। उन दोनों के नाश्ते की व्यवस्था मासी करती थी। मासी सुबह सात बजे से शाम छह बजे तक उनके पास रहती थी और इस दौरान सारा काम निपटा कर जाती थी। दोनों वक्त का खाना भी वही बनाती थी। बारह बजे एक तली हुई मछली। घोष बाबू के लिए फिर से चाय। चाय के बहुत शौकीन थे वे। अब तो खैर चाय ज़िंदगी का हिस्सा बन गई थी। वे कहते भी---वह बंगाली ही क्या, जो चाय नहीं पीता हो। चाय नहीं पीने वाला व्यक्ति और चाहे जो भी हो लेकिन बंगाली नहीं हो सकता। दोपहर का खाना ढाई बजेतक फिर थोड़ा आराम। शाम साढ़े चार बजे घोष बाबू इवनिंग वाक के लिए निकल जाते। मॉर्निंग वाक उन्होंने बंद कर दिया था। पहले सुबह चार बजे ही मॉर्निंग वाक पर निकल जायाकरते थे। एक बार बेहोश होकर गिर पड़े थे।दिल का हल्का सा दौरा था। लगभग आधे घंटे तक सड़क पर पड़े रहे। उतनी सुबह बाहर कौन मिलता, जो उन्हें अस्पताल तक ले जाता। बाल-बाल बच गये थे। तब से मॉर्निंग वाक बंद कर दिया था। शाम को भीड़भाड़ में निकलते थे। अगर रास्ते में कुछ हो भी गया तो लोग उन्हें संभालेंगे तो सही। घुटनों की वजह से ज्यादा चल नहीं पाते थे। पास के मैदान में जाकर थोड़ा टहलते, फिर मैदान में ही बैठ कर सुस्ता लेते। साथ ही शाम की ताजा हवा का आनंद भी उठा लेते। इस दौरान सुंदरी उनके साथ रहती। कई लोगों ने तो मजाक भी किया-लगता है घोषबाबू का ध्यान रखने के लिए बौदी (भाभी) सुंदरी का रूप लेकर आ गई है। घोष बाबू इन बातोंपर ध्यान नहीं देते। हंस कर उड़ा देते। शाम छह बजे तक सुंदरी के साथ वे घर वापस लौट आते। मासी चाय बनाकर देती। सुंदरी दूध पीती। चाय की चुस्की के साथ घोष बाबू दिन भर का समाचार जानने के लिए टेलीविज़न से चिपक जाते। आठ नौ बजे तक टेलीविज़न चलता। फिर खाकर सोने की बारी लेकिन आज रूटिन पूरी तरह बिगड़ गई थी। टेलीविज़न तो सात बजे ही बंद हो गया। सुंदरी के नहीं आने से रात नौ बजे खाने का कार्यक्रम भी कैंसिल हो गया। हर पल तनाव जी रहे थे घोष बाबू।
कौन है ये हमसफ़र? क्या घोष बाबू से होगी उसकी मुलाक़ात? जानने के लिए पढ़िए कहानी का अगला भाग कल

Saturday, September 6, 2008

निर्माणाधीन ब्लॉग

कहानियों पर केंद्रित ये ब्लॉग अभी निर्माणाधीन है। इसे जल्द ही लांच किया जाएगा