Sunday, September 21, 2008

जंगल जिंदगी

कहानी
नूर मुहम्मद नूर
नूर मुहम्मद नूर समकालीन हिंदी ग़ज़ल में एक चर्चित नाम है। हिंदी के अलावा उर्दू, अरबी, फ़ारसी, बांग्ला और भोजपुरी में साहित्य की हर विधाओं में पिछले तीन दशकों से सक्रिय लेखन। दो दर्जन कहानियां, विभिन्न विधाओं की पचास पुस्तकों की समीक्षा, ढेरों व्यंग्य रचनाएं, ग़ज़लें, कविताएं हिंदी की विभिन्न लघु पत्रिकाओं में प्रकाशित। कविताओं की पहली किताब ताकि खिलखिलाती रहे पृथ्वी, कहानी संग्रह आवाज़ का चेहरा, ग़ज़ल संग्रह दूर तक सहराओं में प्रकाशित। दस पुस्तकें प्रकाशनाधीन।


पिछले पांच दिनों के भयावह अंतर्द्वन्द्व से आज कहीं जाकर नसीम को मुक्ति मिली। सोमवार की दोपहर अपने दो साल के मटमैले चिथड़े पहने, बेटे को अपनी गोद में सुला रही, उस पागल जैसी औरत को देखने के बाद से, निरंतर पांच दिनों की लंबी मानसिक उथल-पुथल ने अंदर से पूरी तरह तहस-नहस कर रखा था। वह औरत बार-बार उसके जेहन में अपने बच्चे समेत आ धमकती। उसका बार-बार चारों ओर, आते जाते लोगों को देख कर हाथ फैलाना, रिरियाना...मुंह और बच्चे की ओर इशारा करना, खाते-पीते, सोते-जागते उसके जेहन में कौंधती रही वो। नसीम उसके बच्चे के बारे में सोचता। पता नहीं कौन है पिता उसका? अगर बच्चे को बुखार हो गया तो? अगर वो औरत ही किसी बड़ी बीमारी की गिरफ़्त में अचानक आ जाये तो...अच्छा बच्चे को बुखार है, यह औरत क्या जान पाएगी? बच्चा उस दिन औरत की गोद में बेसुध पड़ा सो रहा था...क्या उसे बुखार था? सोमवार की उस दोपहर जब वो घाट से पुस्तकालय के लिए पत्रिकाएं लेकर लौटा तब भी, उसने देखा बच्चा उसकी गोद में बेसुध पड़ा हुआ है...पास ही बैठे खीरे वाले से उसने दो छिले हुए खीरे कऱीद कर उस औरत को देते हुए कहा-- ''एकटा बाच्चा के देबै'' (एक बच्चे को दे देना)
''ओ घुमोच्चे।'' (वो सो रहा है)
''ठीक आछे। वो उठले ओके दिए देबे।'' (ठीक है, जब वो उठेगा तो उसे दे देना)
''हां, रेखे दिच्छी'।'' (अच्छा, मैं रख देती हूं)
उस औरत ने खीरे को कटोरे में डाल लिया था। वो फिर अपने दफ्तर चला आया था। पर एक नामालूम सी बेचैनी थी कि उसे मथे दे रही थी और उसकी जड़ में वो पागल सी औरत और उसका दो साल का बेटा...उसी दिन बाद में, कोई चार बजे के आसपास उसे हठात ख्याल आया अरे! उस बच्चे को बुखार है या नहीं यह तो, उस औरत को खीरे देते वक्त पूछना ही भूल गया था। नसीम अपने अंदर की पागल बेचैनियों पर सवार फिर भागा घाट की ओर। पर यह क्या? औरत वहां नहीं थी। वह अपने बच्चे के लेकर कहां चली गई? उसने दोनों तरफ के फुटपाथों पर दूर तक...घाट पर...फेयरली से लेकर आर्मेनियम घाट तक चारों ओर उस औरत को तलाशा पर वह कहीं नहीं थी। इसके साथ ही नसीम ने भी जैसे महसूस किया कि वह भी कहीं नहीं है। आखिर खुदा ने उसे इस बेदिल दुनिया में भी ऐसा कमबख्त दिल क्यों अता फरमाया? इतनी भावुकता, ऐसी छल-छल संवेदना कोई अच्छी बात नहीं मानी जाती इस दुनिया में। आलोचना भी अति भावुक एवं सघन संवेदनशील रचनाओं को अच्छी निगाह से नहीं देखती। इसे वह लेखक की कमज़ोरी और नासमझी कहकर ख़ारिज कर देती है।
फिर नसीम ने खुद को दिलासा दिया...अरे ठीक है, कहीं और चली गई होगी...हो सकता है बच्चे को सचमुम बुखार हो और उसे पता चल गया हो और वह बच्चे के लिए कहीं दवा मांगने चली गई हो। उसने कई तरह से खुद को तसल्ली दी...बड़े बेवकूफ हो यार। अरे इतना भी क्या परेशान होना? दुनिया में हज़ारों-लाखों ऐसे हैं, जिनका घर नहीं है, दर नहीं, ज़र-ज़मीन नहीं। खाने-पहनने को नहीं...ऊपर से दर-दर की ठोकरें, फिर तुम तो यूं परेशान हो रहे हो मानो वो कोई तुम्हारी रिश्तेदार हो...छोड़ो यार...कहीं होगी वह..फिर किसी दिन नज़र आ जाएगी अपने बच्चे के साथ..इस बार खीरा नहीं...पावरोटी बिस्कुट खिला देना। नसीम फिर अपने दफ्तर के 'कहीं' में लौट आया था, जैसे वह दुनिया के किसी और कहीं में हठात समा गई थी।
सोमवार, मंगलवार, वह अंदर ही अंदर टूटता-बिखरता रहा, पिघलता रहा...एक अजीब किस्म की उदासी-बेचैनी व्याकुलता में लिपटा, सोचता ...बसों में, दफ्तर और घर में...पत्नी ने कई बार उसको इस कैफियत के साथ पकड़ा भी...''का हुआ है जी? कई दिन से बड़ा खोए लग रहे हैं। ऑफिस में किसी से झगड़ा-वगड़ा हुआ है का? कौनो अफसर कुछ बोल दिया है...कितनी बार समझाया कि अफसर लोग से दूर रहिए...ऊ लोग आपका क़दर नहीं करेगा...पर आप?'' ''अरे, नहीं ऐसी कोई बात नहीं है। ...दौरा पड़ा है...देख नहीं रही हो, सुबह उठकर...फिर दफ्तर से आकर क्या करता हूं।''
फिर बुध से शुक्रवार तक यही कैफ़ियत बनी रही...पहले कुछ शेर सूझे...नसीम ने सोचा एक ग़ज़ल ही हो जाय...पर बात नहीं बनीं...फिर एक नज़्म...उसे लगा यही ठीक रहेगी। पर ग़ज़ल की तरह वो भी चार-पांच पंक्तियों के बाद बिला गई...तमाम मशक्कतों पर पानी फिर गया। न ग़ज़ल पूरी हुई, न नज़्म अपने अंज़ाम को पहुंची...बेचैनी थी कि उसने ग़ज़्लोनज़्म के अश्आर में दाखिल होने से इंकार कर दिया था...बहुत कोशिश की,...फिक्र और ख्याल के घोड़े दौड़ाए...पर हासिलअदूरी नज़्में-ग़ज़लें...फटे हुए दिल की बेचैन आवाज़ें अल्फाज़ में पनाह नहीं पा सकीं। उन ग़ज़लों के अलफाज़ में, जिनमें ग़ालिब ने दर्दे ग़म की कितनी ही कायनात निचोड़ डाली थीं। लेकिन उनसे भी तो वो सबकुछ, जो आदमी को आदमी के अंदर के आदमी और उसकी दुनिया को यकायक तबाहो बर्बाद कर दी जाती है, लफड़ों में उसी तरह नहीं निचोड़ा गया था। तब उन्हें भी अपने दुखों को बयान करने के लिए डायरी 'दस्तम्बू' लिखनी पड़ी थी...और ख़ुतूत भी।
पर आज उसने अपनी इन बेचैनियों से छुटाकारा पा ही लिया...पांच दिनों से अंदर ही अंदर घुमड़ रही बेचौनियों का लावा अन्तत: पूरी तरह पिघल कर बाहर निकल ही गया। उसने चार-पांच पन्ने घसीटे और पूरा का पूरा लावा एक कहानी के हज़ार शब्दों में... नसीम को तभी से कुछ राहत सी महसूस हो रही है...पर राहत से उसे अपनी अंदरूनी हलचलों-बेचैनियों से मिली है। पर वो औरत और उसका नंगधड़ंग मटमैला भूखा बच्चा...उस औरत और बच्चे को उसने अपनी कहानी में नहलाया और अच्छे कपड़े पहनाकर अच्छे भोजन भी दिया है...अपने मन की तसल्ली उसने कहानी लिख कर कर ली है...अपना सारा बेचैन गुबार भी उसने निकाल लिया है...पर सचमुच वह औरत क्या अब तक कहीं नहा चुकी होगी और उसने अपने बच्चे को भी नहला दिया होगा? क्या उन दोनों ने इस समय साफ़ कपड़े पहन लिये होंगे...बढ़िया भरपेट भोजन क्या उन्हें मिल गया होगा? क्या वह औरत इस समय किसी सुरक्षित स्थान पर अपने बच्चे को अपनी छाती से चिमटाए सुख की नींद सो रही होगी?
नसीम को लगा उसकी राहत बाढ़ज़दा लोगों को मिली रही राहत से ज़्यादा नहीं है। उन्हें आसमान से गिराए गए चिउड़ा-गुड़-बिस्कुट के पैकेट बड़ी मुश्किल से मिल पाते हैं, और उसे एक कहानी मिल गई है...लेखक का ज़मीर भी लेखक ही होता है...नसीम को लगा मगर उसके लेखक का ज़मीर मगर लेखक नहीं है...वह लेखक की तरह नहीं सोचता...शाइरों की तरह फिक्रमंद और फनपरस्त नहीं है...
उसका ज़मीर उसके अंदर से बल खाकर बाहर निकल आया और बोंसाई आदमी की शक्ल में उसके राइटिंग टेबल पर खड़ा हो गया... ''क्यों मिल गई तुझे राहत? पांच दिन से इसी के लिए तड़प रहा था न तू? ग़ज़ल, नज़्म और आखिर में कहानी... वाह क्या कहानी है? एक औरत जिसका कोई नहीं...पर उसका एक बच्चा है...वह भीख मांग कर अपना और अपने बच्चे का गुजारा करती है...फुटपाथों पर रहती है...अरे! वह भी पैदा हुई होगी...होंगे उसके भी मां-बाप...भाई-बहन...रिश्तेदार कहां मर गए सब? उस बच्चे का बाप कौन है? कहां है वो... किसने उस औरत को इस दशा में पहुंचाया...देखा है तुमने...किसी मर्द को एक बच्चे के साथ रहते हुए इस हालत में...फुटपाथ पर भीख मांग कर खाते हुए...चीरहरण द्रोपदी का, युधिष्ठिर का क्यों नहीं? क्या है औरत में जो सिर्फ और सिर्फ उसी की बेहुरमती, उसी का अनादर..हर काल खंड में...और आज भी स्त्री विमर्श...काहे का विमर्श...विमर्श के लिए विमर्श...दलित विमर्श...दलित को और...और...रोज...रोज पददलित करो और फिर उस पर दलित विमर्श... कहानी लिखकर राहत महसूस कर रहे हैं...अरे कैसी और कहां की राहत...क्या राहत पाने के लिए ही लिखा जाय केवल? और चीजें-सूरते बनी रहें...प्रेमचंद ने सैकड़ों कहानियां लिखीं, उपन्यास लिखे, भाषण दिए...कथा और उपन्यास सम्राट माने गए...सारा जीवन उन्होंने किसानों-मजूरों और गरीबों की कहानियों की खेती की। आज उनके नाम पर लाखों-करोड़ों के वारे न्यारे हो रहे हैं लेकिन आज स्थिति क्या है? उनके हलकू-होरी मुल्क में चारों ओर आत्महत्याएं कर रहे हैं...जगह-जगह उनके हलकू-होरी की ज़मीनें जबरन उनसे छीन कर उन्हें मारा पीटा और उनकी ज़मीन से बेदखल किया जा रहा है, उनके घीसू-माधव की संततियों की संख्या देश भर में दिन दूनी रात चौगुनी की रफ्तार से बढ़ रही है...कालिदास की शकुंतला ही उनकी निर्मला है...और तुम्हारी निर्मला औरत...यह औरत जो अनाम है...और निश्चित रूप से वह लड़का इस औरत का भरत नहीं है...कौन है यह लड़का....कहानी लिख कर राहत महसूस कर रहे हो...पूछो...पूछो...अपनी बीवी से पूछो...सारा सारा दिन गृहस्थी के हिमालय वो लांघती है....पार करती है रोज रोज अभावों के भयावह जंगल...। वसंत जले हुए वनों की तरह उसके होठों पर फड़फड़ाता रहता है...सारा...सारा दिन...झाड़ू-बुहरू, धोना-पोंछना, सीना-पीरोना, रसोई और...रात फिर तोड़ती है सितम...सितम उसकी देह पर...और वह पसर जाती है पृथ्वी की तरह बेजुबान....पूछो...पूछो...कितना राहत महसूस करती है वह यह सब करते हुए...एक कहानी लिखकर राहत महसूस कर रहे हो....और बस सारी जिम्मेदारी खत्म....लानत है...हज़ार लानत है तुम पर....तुम्हारे लेखक पर...आख थूsss....
इतना लंबा डायलॉग झाड़ कर नसीम का ज़मीर तो गायब हो गया पर उसने सिर पकड़ लिया। लगा किसी ने उसके सिर पर हथौड़ों से प्रहार किया हो। उसने एक सिगरेट सुलगा ली मानो ऐसा करते ही उसे इस भयानक मानसिक स्थिति से मुक्ति मिल जाएगी। थोड़ा स्थिर होने पर फिर वह कहानी के नेकपल ठीक करने लगा...तभी उसने देखा...पत्नी जो रसोई में थी...हठात् बरामदे में आकर फर्श पर धम्म से बैठ गई 'या अल्लाह! रहम कर मालिक।' उसकी आवाज़ में एक अजीब तरह की वेदना और खीझ भरी हुई थी और उसके भाव भी जैसे उसके चेहरे पर उभर आए थे. उसने देखा गमले में आटा सानने के लिए अभी वैसा ही पड़ा हुआ था। सामने जग में पानी भी पड़ा था। उसने इस बार गौर से देखा, गर्मी और घमौरियों की मार से पत्नी की गर्दन और निचले हिस्से स्याह धब्बों से हो रहे थे।
''क्या हुआ? बहुत थक गई लगती हो, तबीयत तो ठीक है ना...दो... मैं आटा सान दूं....''
पत्नी ने उसे घायल सिंहनी की तरह घूर कर देखा मानो नसीम ने कोई बहुत गलत बात कह दी हो। ''हम आपको बोले हैं आटा सानने के लिए?''
''नहीं लेकिन सान दूंगा तो क्या हो जाएगा? सारा दिन ही तो खटती हो...अगर मैं इसमें थोड़ा हाथ बंटा दूं तो इसमें गलत क्या है? आखिर मैं कर ही क्या रहा हूं? कहानी ही तो लिख रहा हूं...कहानी-कविता लिख सकता हूं तो आटा भी सान सकता हूं। मैं क्या कोई लाट-गवर्नर हूं?''
''नहीं...नहीं...आप अपना ही काम कीजिए। जिसका जो काम, उसको वही करे तो अच्छा।''
''क्यों? तुम तो आजकल देख रहा हूं कविताएं भी लिख रही हो। एक पूरी नई डायरी तुमने लगभग भर दिया है। यह क्या तुम्हारा काम है?''
''वो तो मैं ऐसे ही , जब कुछ फुरसत होती है, नींद नहीं आती है तो लिख लेती हूं...पर आप तो कवि हैं....आपका इतना नाम..मान-सम्मान है...इतना छपता है....किताबें हैं....आपका तो काम ही लिखना-पढ़ना है...आटा सोनेगो--अचानक आकर कोई देख लेगा तो क्या सोचेगा? कहेगा कि देखो मरद से घर का काम करवा रही है।''
''क्यों यह घर मेरा नहीं है क्या? मैं घर का काम क्यों नहीं कर सकता? वैसे भी सारा काम बाहर का करता ही हूं। राशनपानी, दवा-दारू, सब्जी, कपड़ा-लत्ता कौन लाता है? मैं ही ना...लाओ...इधर दो...सान देता हूं आटा...जाओ तुम थोड़ा आराम कर लो।''
नसीम ने उठकर आटा का गमला ले लिया। अभी उसमें वो वहीं बैठकर इसके पहले कि पानी डालता...मोबाइल घनघनाने लगा। विद्युत गति से उठकर नसीन ने मोबाइल कान से चिपका लिया। ''हलो,'' उधर से आवाज़ आ रही थी।
''नानू, सलामालेकुम,...क्या करते हैं? मैं साहिल बोलता...नानी कहां है...खाला..अम्मी...मामा...'' नाती का फोन था। उसकी मां ने फोन लगाकर उसे थमा दिया होगा। चार-साढ़े चार साल का साहिल। उसका नाती। अचानक वो जैसे तनाव मुक्त हो गया था। एक अनजानी खुशी जाने कहां से आकर उसके दिल में समा गई थी। उसने पत्नी को आवाज़ दी ''ए जी, सुनती हो...नाती को फोन है...लो बात कर लो।'' उसने पत्नी को फोन थमा दिया था।
पर तभी उसके जेहन में वह औरत अपने बेटे के साथ कौंध गई...लगा यह वही लड़का है...जो नानू कहकर फोन कर रहा है...और उसकी मां वही पगली सी औरत...उसकी बेटी ही जैसे...उसकी अपनी बेटी...अपना नाती...।

4 comments:

नीरज गोस्वामी said...

बहुत अच्छी और मार्मिक कहानी है....शब्द और भाव बेमिसाल...शुक्रिया आप का इतनी अच्छी कहानी पढ़वाने के लिए.
नीरज

Anwar Qureshi said...

BAHUT KHUB ...

Udan Tashtari said...

नूर साहब की कहानियाँ हमेशा आकर्षित करती है. आभार आपका.

shama said...

Kahanee behad achhee hai...antbhee ekdamse anapekshit!!
Kya "Katah Sansaarke"liye meree koyi katha chunee hai?Gar chunee jaye to behad khushee hogee.
Aapke blog ke liye anek shubhkamnayen!