Thursday, September 18, 2008

मन में खड़ी थी दीवार

उर्दू कहानी

बीच की दीवार--भाग 2

गियासुर्रहमान
अनुवाद : नसीम अजीजी


कल कहानी के पहले भाग दंगा और एक बाप की बेबसी में आपने पढ़ा मशकूर अली का संकट। आज पढ़िए कहानी की दूसरी और आखिरी किस्त

आस-पड़ोस में सभी हिंदुओं के मकान थे। यों तो उनके ताल्लुकात सभी से अच्छे थे लेकिन इस फ़साद ने तो दिलों में दरारें पैदा कर दी थीं, किस पर एतबार किया जाय? उनके घर की दीवार के उस तरफ पंडित रतनलाल रहते थे। उनकी बच्ची भी सुग़रा के साथ एक ही स्कूल में पढ़ती थी। दोनों में इस क़दर दोस्ती थी कि एक दूसरे के बगैर एक पल भी रहना गंवारा न था। ऊषा की गुड़िया और सुग़रा का गुड्डा, जिनकी कई बार शादी रचाई गई थी, आज अलग-अलग थे। ऊषा उधर रो-रो कर सुग़रा के घर जाने की जिद कर रही थी लेकिन पंडित रतनलाल खतरा महसूस कर रहे थे। ''मशकूर अली मुसलमान है, वैसे तो वो भला आदमी है लेकिन दंगे में तो सारे मुसल्ले एक जैसे हो जाते हैं। नारा-ए-तकबीर की आवाज़ कान में पड़ते ही आपे से बाहर हो जाते हैं। मैं अपनी बेटी को उसके घर भेजूं और वो उसका गला दबा दे तो क्या होगा?''
वो अपनी बेटी को बहुत समझाते लेकिन उसकी जिद बढ़ती ही जा रही थी। उधर सुग़रा की हालत ग़ैर हो रही थी। मशकूर अली की बेगम और राशिदा रोने लगीं। मशकूर अली उन्हें दिलासा तो दे रहे थे लेकिन खुद उनकी आवाज़ भी भर आई थी और आंखें डबडबाने लगीं। वो कुछ कहना ही चाहते थे कि अचानक उनकी दीवार पर आहट हुई। रात काफी हो चुकी थी। कोई उनके घर की दीवार तोड़ रहा था। दीवार के उस तरफ पंडित रतनलाल का मकान था। मशकूर अली ने अपनी बंदूक कस के पक़ड़ ली। उसमें कारतूस भर दिए और खतरे से निपटने के लिए तैयार हो गए। उन्होंने बेगम से कहा कि वो सुग़रा को लेकर दूसरे कमरे में चली जायं और राशिदा को अपने साथ रहने का हुक्म दिया। वो दिल ही दिल में बड़बड़ाए, '' मुझे रतनलाल से ऐसी उम्मीद न थी कि वो फसादियों को अपने घर से मेरे घर में दाखिल करेगा। वैसे तो बड़ा प्यार जताता था लेकिन आज उसने अपना कमीनापन दिखा ही दिया।''
मशकूर अली ने मुस्तहकम इरादा कर दिया कि फ़सादियों के अंदर घुसते ही वो गोली चला देंगे चाहे उनमें रतनलाल ही क्यों नो हो, जब उसको दोस्ती का एहसास नहीं है तो मैं क्यों हिचकिचाऊं।
दीवार के पीछे से कुदाल की ज़र्बें लग रही थीं और हर ज़र्ब के साथ मशकूर अली के दिल की धड़कन तेज़ हो रही थी, राशिदा उनके पीछे सहमी हुई, ज़ख्मी फ़ाख़्ता की तरह कांप रही थी--''पुराने ज़माने की दीवार इतनी आसानी से नहीं गिरेगी''---एक जगह से चूना उखड़ना शुरू हुआ। मशकूर अली दीवार के बिल्कुल करीब आ गए। बहुत देर के बाद दीवार की एक ईंट घऱ में गिरी और आर-पार एक सुराख हो गया। मशकूर अली ने ललकार कर कहा--''खबरदार! अगर किसी ने अंदर घुसने की कोशिश की तो गोली चला दूंगा।'' और उन्होंने बंदूक की नाल ईंट से निकले हुए सूराख पर लगा दी लेकिन दूसरे ही लम्हे ऊषा की आवाज़ ने चौंका दिया।
''मशकूर चाचा, मैं सुग़रा के लिए खाना लाई हूं।'' और उसने सूराख से एक छोटा सा टिफिन अंदर की तरफ बढ़ा दिया।

2 comments:

seema gupta said...

''मशकूर चाचा, मैं सुग़रा के लिए खाना लाई हूं।'' और उसने सूराख से एक छोटा सा टिफिन अंदर की तरफ बढ़ा दिया।
" very very interesting story, the end of the story is very emotional, liked it"

Regards

shama said...

Manko chhoo gayee kahanee...fasadonse insaanonkaa kya waastaa...Ye fasaad failanewaale...wo to haiwaan kehlane layaqbhee nahee...
Aapne abtak meree kathaa publish nahee kee...mai intezaar me hun...koyeebhee katha utha sakte hain!
Shama