Thursday, September 11, 2008

'मुख्यधारा' से भटका एक कॉमरेड

कोलकाता के युवा कथाकार उदयराज की जितनी पकड़ राजनीतिक और शहरी मानसिकता पर है, उतनी ही पकड़ ग्रामीण संवेदनाओं पर भी है। उनकी कई कहानियां कई पत्र-पत्रिकाओं में छप चुकी हैं। पेशे से अध्यापक उदयराज इरा पत्रिका के संपादक भी है। पेश है यहां उनकी कहानी हाशिये पर
हाशिये पर--भाग एक




''हैलो, कौन?''
''हैलो, मैं श्यामल बोलता। तुम्हारे पीछे से।''
''अरे, श्यामल दा। तुमने इस नाशुक्रे को कैसे याद किया?''
''नहीं दीपक, तुम ऐसा मत बोलो। वो हमारा मिस्टेक था।''
''नहीं, श्यामल दा, कुछ तो सच, अ बिट ट्रूथ तो रहा ही होगा न।''
''हम तुम्हारा बात आज भी सबको बोलता। क्या बोला था तुम वो दही-दूध वाला बात?"
'' यही कि दही में दूध मिलाने से दही ही बनेगा।"
'' हां, तुम एकदम सत्य बोला था। हम अब समझ गया है। हम तो दूध का बाउल (कटोरा) को सागोर (सागर) समझ लिया था। और सोचा था कि थोड़ा सा दही में सागोर भर दूध मिला देगा तो दही का पता नहीं रहेगा।''
''होता है, जोश में ऐसा ही होता है। एक उम्र एक विशेष वयस की शोभा होता है जोश भी। इस जोश के उपयोग यानी यूज के लिए होश भी तो चाहिए न। मगर गड़बड़ यहीं है। जिसके पास जोश होता है उसके पास होश नहीं होता और होश है जिसके पास उसके पास आईना नहीं है।''
''दीपक, यार तुम सब कुछ भूलकर एक बार फिर आ जाओ न।''
''श्यामल दा, याद है न तुम्हें? तुमने मुझे इसी होश की बात पर झिड़क दिया था। कहा था-मैं और मेरे जैसे लोगपीछे रह जाते हैं। मुख्य धारा में कभी नहीं मिल सकते। मैं तो आज भी उसी राह पर पड़ा हूं। तुम बताओ, मुख्य धारा की हलचल।''
''तुम टेढ़ा का टेढ़ा ही रहेगा। सुनो, मुख्य धारा में हम आया ता ''पावर'' पाने के वास्ते। सो हमने पाया। आज हमारा पास गाड़ी है, अपना घर है, दस ठो लोग आगे-पीछे है। हम अकेला नहीं चलता।''
''तुम्हारे साथ जो चले थे, क्या सब के सब तुम्हारे जैसे ही हैं?''
''तुम इतना काहे को सोचता है दीपक? हम मानता है कि सब लोग हमारे साथ वाला हमसे अच्छा था और एक बात पर मिट जाने वाला भी था लेकिन सबका भाग तो एक जइसा नहीं होता...।''
''दादा, एक कॉमरेड के मुंह से भाग्य की बात? यह क्या मुख्य धारा का चमत्कार है?
''हम भाग्य नहीं भाग बोला। भाग माने शेयर, हिस्सा।''
''शब्द बदलने से भाव नहीं बदलता दादा। भाग्य या भाग कुछ के हिस्से होने के पीछे तो साजिश एक ही है, है न?"
''तुम भी समझा, हम भी समझा --इस साजिश को।तुम इसको विचार से खत्म करना चाहा। हम इसमें घुस कर इसको समझ कर इसको शेष करना चाहा...।"
"परन्तु तुम आज खुद ही इस साजिश की मजबूत दीवार बन बैठे क्योंकि तुम हिम्मत वाले थे, क्योंकि तुम आधार वाले थे, क्योंकि तुम नेतृत्व की भाषा जानते थे...क्योंकि तुम इसी साजिश रचने वाली जाति के थे...।''
''तुम कुत्ते की दुम सा सीधा नहीं हो सकता। पता नहीं क्या सोचता है, क्या-क्या बोलता है...भाषा, जाति--ये सब क्या है? हम तो ये सब फिजूल मानता है.।''
''और इसीलिए इसकी चलने देते हो, जिसके चलते रहने से तुम सुरक्षित हो...।''
''दीपक, हम और तुम एक साथ ज्वायन किया था...।"
''हां...तब हमारा दल सत्तासीन नहीं था....सर्वहारों की आशा था, उनकी उम्मीदें की लहरें थीं। उनका स्थान था। उनके लिए कुछ कर पाने का उन्माद था।''
''लेकिन तुम तो तब भी हमको और दूसरा साथी को समझाता था। हमको धीरे-धीरे लोगों के मन में घुसना चाहिए। जोश में वो सब नष्ट नहीं करना चाहिए, जिससे हम एक दूसरे से बंधता है.. यही सब तो बोलता था तुम..।''
''हां''

क्या मान जाएगा दीपक? जानने के लिए पढ़िए कहानी का अगला हिस्सा कल।

3 comments:

seema gupta said...

" very interesting, aagey kya hoga??? waiting"

Regards

संगीता पुरी said...

अगले भाग का इंतजार रहेगा।

Udan Tashtari said...

रोचक कहानी-आगे इन्तजार है.