Thursday, January 8, 2015
एक था पीके
Saturday, November 23, 2013
लोकतंत्र का राजा
पूरे राजमहल में दहशत और बेचैनी का माहौल था। हर शख्स परेशान। किसी अनहोनी की आशंका से खौफ़जदा। ऐसा पहली बार हुआ था। राजा लापता था। पिछले तीन दिनों से उसका कोई सुराग नहीं था। हर जगह ढूंढ लिया गया था लेकिन राजा की कोई ख़बर न थी। मजबूरी ये थी कि इस ख़बर को लीक भी नहीं किया जा सकता था। लोकतंत्र में राजा का इस तरह लापता होना शुभ संकेत नहीं था। विरोधी दलों को बैठे बिठाए एक मुद्दा मिल जाता। और केवल विरोधी दल ही क्यों कुर्सी पर नज़र गड़ाए अपने ही दल के लोग हंगामा बरपा देते।राजा राघवनाथ के तीन भाई ही सबसे पहले गेम शुरू कर देते। इसलिए पूरी गोपनीयता बरती जा रही थी। सबसे बड़ा डर इस बात का था कि अगर टेलीविजन चैनल वालों को पता चल गया तो फिर राजा का तमाशा बन जाएगा। लोकतंत्र गहरे संकट में था।
राजमाता के चेहरे पर शिकन साफ़ देखा जा सकता था। अपने चार बेटों में से उन्होंने राघवनाथ को केवल इसलिए राजा की कुर्सी दी थी क्योंकि उसका अपना कोई व्यक्तित्व नहीं था। सीधा-सादा-गौ आदमी। डरने वाला। राघवनाथ के जरिए राजमाता अपना राज चलाती थी। राघवनाथ पूरी तरह राजमाता के शिकंजे में था। कठपुतली राजा। राजमाता के बाकी तीन बेटे उससे बिल्कुल अलग थे। इसलिए राजमाता को उन पर भरोसा नहीं था। हो सकता था कुर्सी मिलते ही वो राजमाता को ही किक मार कर सत्ता से अलग कर देते। राजमाता को पक्का विश्वास था कि राघव राजमहल से बाहर नहीं जा सकता। उसके अंदर इतनी हिम्मत नहीं थी। मंत्रीसभा में भी कोई ऐसा नहीं था जो राजा को महल से बाहर ले जाने की हिमाकत करता। राजमाता ने अपने ख़ास लोगों को बुलाकर एक बार फिर राजमहल की गहन तलाशी का फ़रमान जारी किया। उनका निर्देश था कि महल का चप्पा-चप्पा छान मारा जाय। एक बार फिर महल में राजा की तलाश शुरू हो गई।
राजा अपने शयन कक्ष में ही मिल गया था। अपने पलंग के नीचे छिपा हुआ। पकड़े जाने पर राजा पलंग के नीचे से निकल कर शयन कक्ष के एक कोने में जाकर दुबक गया। बिल्कुल साधारण कपड़ों में। ऐसे बकरे की तरह वो कोने में दुबका हुआ था, मानो उसे अभी काटा जाएगा। उसने राजसी वस्त्र उतार फेंके थे। राजमुकुट भी शयन कक्ष में एक ओर लुढ़का हुआ था। अपने कमरे में सैनिकों को देखते ही वो रिरियाने लगा--''मुझे छोड़ दो। मैं राजा नहीं हूं। मैं राजा नहीं हूं।''
सभी घबड़ा गए। एक सैनिक हिम्मत कर उनके पास गया और समझाने की कोशिश की-''महाराज, आपको क्या हो गया है? आप ही राजा हैं। हमारे भाग्य विधाता हैं।''
'' नहीं, नहीं'' राघवनाथ चिल्ला उठा, '' मैं राजा नहीं हूं। मैंने कुछ नहीं किया। मैं राजा नहीं हूं।''
पूर राजमहल में आग की तरह ख़बर फैल गई कि राजा पागल हो गए हैं। वो खुद को राजा मानने को तैयार नहीं। कुर्सी से दीमक की तरह चिपके रहने वाले राघवनाथ का ये कहना कि वो राजा नहीं हैं--किसी अजूबे से कम नहीं था। जब राजमाता की पार्टी ने चुनाव जीता था और उनके चार बेटों में से किसी एक को राजा चुना जाना था तब कितनी उठापटक हुई थी, ये आज तक सबको याद है। डरपोक राघवनाथ रात के अंधेरे में राजसभा में जाकर राजा की कुर्सी पर बैठकर राजा का स्वांग रचता। कुर्सी को चूमता, सहलाता। जब एक ख़ास चाटूकार ने पूछा था कि वो ऐसा क्यों करता हैं तो उसने बिना किसी लागलपेट के कहा था कि वो राजमाता के सामने अपनी मांग नहीं रख सकता लेकिन राजा बनने की इच्छा तो रखता ही हैं। इसलिए रात को चुपचाप राजा की कुर्सी पर बैठकर अपनी ये इच्छा पूरी कर रहा हैं। अगर कुर्सी नहीं मिली तो कम से कम मलाल नहीं रहेगा। अब वही राघवनाथ लोगों को ये बता रहा हैं कि वो राजा नहीं हैं।
ख़बर मिलते ही राजमाता लगभग दौड़ते हुए राघवनाथ के कमरे में पहुंची थीं। उन्हें इस बात से राहत मिली थी कि राघवनाथ मिल गया लेकिन उसकी दिमागी हालत की ख़बर से वो चिंतित भी हुईं। अगर राघवनाथ पागल हो गया तो उसे राजा की कुर्सी पर बिठाए नहीं रखा जा सकता और अगर ऐसा हुआ तो सत्ता राजमाता के हाथों से निकल जाएगी। राजमाता को पागल नहीं कमजोर राघवनाथ चाहिए था।
राजमाता को देखते ही राघव और जोर-जोर से चीखने लगा, '' मैं राजा नहीं हूं। मुझे छोड़ दो। मैं राजा नहीं हूं।''
राजमाता जैसे-जैसे उसके करीब पहुंच रही थीं, वो और सिकुड़ता जा रहा था। मानो राजमाता उसे कच्चा निगल जाएंगी। राजमाता जब उसके करीब पहुंची, वो आदमी से सिकुड़ कर लगभग गेंद बन गया था। राजमाता ने जैसे ही उसके सिर पर हाथ रखा, वो फफक-फफक कर रो पड़ा, ''मुझे छोड़ दो, मुझे छोड़ दो, मैं राजा नहीं हूं।'
''राघव ये क्या हो गया है तुम्हें? तुम्हीं राजा हो। इस देश के भाग्यविधाता हो।'
''नहीं, नहीं, मैंने कुछ नहीं किया। मैं राजा नहीं हूं।मैं निर्दोष हूं। मुझे छोड़ दो, मुझे मुक्ति दो। मैं राजा नहीं हूं।''
राजमाता वहीं जमीन पर धम्म से बैठ गईं। वहां मौजूद लोगों का दिल भी बैठ गया। राजमाता को इतना टूटते शायद ही कभी किसी ने देखा था। आखिर क्या हो गया राघव को? किस बात से इतना खौफ़जता है राघव? आखिर वो कौन सा डर है, जिसकी वजह से वो राजा होने की बात से ही इनकार कर रहा है? किस बात ने उसे इतना डरा दिया है? किसने उसे इतना डरा दिया है? एक बार पता चल जाय, राजमाता उसे नहीं बख्शेगी। राजमाता के दिल में तरह-तरह की आशंकाओं के बादल उमड़-घुमड़ रहे थे। किस साज़िश का शिकार हो गया राघव? कहीं ये राजमाता को सत्ता से बेदखल करने का कोई खेल तो नहीं है? कहीं अपने ही बेटे तो उनके दुश्मन नहीं बन गए? उनके दिमाग में विरोधी दल की साज़िश की बात बहुत बाद में आई थी, पहले संदेह अपनों की ओर ही गया था। कहीं राघव के भोजन में कुछ ऐसा मिला कर तो नहीं दे दिया गया, जिससे उसकी दिमागी हालत बिगड़ गई है? क्या होगा अब? कैसे निपटेगी अब वो इस समस्या से? राजमाता का दिल बैठा जा रहा था। उन्होंने इशारे से कमरा खाली करने को कहा। सारे सैनिक बाहर चले गए।कमरे में रह गए राघवनाथ और राजमाता। दरवाजा भी बंद कर दिया गया।
राजमाता ने राघव का सिर अपनी गोद में रख लिया, ' राघव डरो नहीं। मैं तुम्हारी मां हूं। बताओ क्या हुआ है? किसने डराया है तुम्हें?'
लेकिन राघव पर अभी भी डर हावी था। वो रिरियाने लगा, ''मैं राजा नहीं हूं। मैं राजा नहीं हूं।'
अब राजमाता को गुस्सा आ गया। वो चीख पड़ीं, ' राघव बंद करो ये नाटक। मुझे ये रोना-धोना बिल्कुल पसंद नहीं है। बताओ क्या हुआ है?'
राघव की सिट्टीपिट्टी गुम। राजमाता का गुस्सा प्रलयंकारी होता है। उनका गुस्सा बेटे और दुश्मन में फर्क नहीं समझता। राघव ने अपना सिर झट उनकी गोद से हटा लिया। क्या पता गोद में ही सिर कलम हो जाय। अब वो पहले से ज्यादा डरा हुआ था। थर-थर कांप रहा था।
राजमाता फिर चीख पड़ी, ' बताओ क्या बात है? इतने बड़े लोकतंत्र का राजा इतना ज्यादा क्यों डरा हुआ है, जबकि मेरा वरदहस्त तुम्हारे सिर पर है?'
राजा राघवनाथ की बोलती बंद हो गई थी। उसके गले से आवाज् भी नहीं फूट रही थी। उसने अपने बिस्तर की ओर इशारा किया। बिस्तर पर देश का सबसे बड़ा अखबार पड़ा हुआ था। पहले पेज पर मोटे-मोटे अक्षरों में हेडलाइन थी, 'भ्रष्टाचारियों को लैंपपोस्ट पर लटका दिया जाना चाहिए'
राजमाता की आंखें फटी की फटी रह गईं। पिछले तीन सालों से उन्होंने अखबार नहीं पढ़ा था। जबसे उनकी पार्टी सत्ता में आई थी, तब से उन्होंने अखबार पढ़ना छोड़ दिया था। उन्हें पता था कि अखबार वाले सरकार को ही गाली देते हैं, तरह-तरह की समस्याएं छापते हैं और सरकार की आलोचना करते हैं। राजमाता को ऐसी ख़बरें परेशान करती थीं , इसलिए उन्होंने अखबार पढ़ना ही छोड़ दिया था। लेकिन आज उन्हें लपककर अखबार उठाना पड़ा था। पूरी ख़बर पढ़ गई वों--''देश की सर्र्वोच्च अदालत ने एक अपराधी की ज़मानत पर सुनवाई करते हुए कहा कि जिसे देखो, वह देश को लूट लेना चाहता है। ऐसे हालात में भ्रष्टाचारियों को सरेआम लैंपपोस्ट पर लटका दिया जाना चाहिए लेकिन हम जानते हैं कि ऐसा हमारे अख्तियार में नहीं है।'
राजमाता कुछ देर स्तब्ध खड़ी रहीं। फिर जोर-जोर से हंसने लगीं। उनके ठहाकों से पूरा कमरा हिल उठा।
'इतने बड़े लोकतंत्र का इतना बड़ा राजा बस इतनी छोटी सी ख़बर से इतना डर गया कि राजा होने से ही मना करने लगा' राजमाता फिर ठहाके लगाने लगीं।
राघवनाथ की आंखों में हैरानी थी, 'आप इसे छोटी ख़बर कह रही हैं?'
' और नहीं तो क्या? ये एक जज की निजी भड़ास है। लेकिन इसमें उसकी लाचारगी भी तो झलक रही है कि ये उसके अख्तियार में नहीं है'
राघवनाथ अभी भी खौफ़ में थे। उन्हें अपने गले में फांसी के फंदे की सरसराहट महसूस हो रही थी, ''राजमाता, आज अदालत ने राय जाहिर की है, कल किसी धारा के तहत फ़रमान भी जारी कर सकती है। क्या हम हाल के दिनों में कई बार अदालती आदेशों के कारणों असुविधाजनक स्थिति में नहीं फंसे हैं?'
' लेकिन तुम निश्चिंत रहो।' राजमाता ने राजा राघवनाथ को भरोसा दिया, ' कोई भी अदालत इस तरह सरेआम लैंपपोस्ट पर लटकाने का आदेश जारी नहीं कर सकती। हमारे देश की संविधान इस बात की इजाजत नहीं देती।'
'' राजमाता आप जरा भविष्य की सोचिए। एक जज का ये गुस्सा किसी दिन जनता के गुस्से में भी तब्दील हो सकता है। अदालत हमारी नहीं, जनता की बोली बोल रही है। संविधान, सरकार, राजा-सब कुछ तो जनता से ही है। अगर जनता ने ही भ्रष्टाचारियों को लैंपपोस्ट पर लटकाना शुरू कर दिया तो?'
अब राजमाता की आंखें खुली। उनका सिर चकरा गया। उन्होंने सपने भी नहीं सोचा था कि राघवनाथ भी इतने दूर की सोच सकता है। सचमुच अब ये गंभीर समस्या लग रही थी। इस तरह की भाषा से तो जनता भड़क सकती है। कुछ करना होगा। करना ही होगा। उन्होंने राघवनाथ को भरोसा दिया कि वो डरे नहीं। इसी बहाने उन्होंने खुद को भी तसल्ली दी कि सत्ता की बागडोर उनके ही हाथों में रहेगी। उन्होंने राघवनाथ को राजा की कुर्सी पर बैठने की नसीहत दी और कहा कि वो इस समस्या का समाधान जरूर निकालेंगी। उन्होंने राघव को निर्देश दिया कि आज ही नवरत्नों की बैठक बुलाई जाय।
राजमाता,राजा राघवनाथ और नवरत्नों की बैठक चल रही थी। पूरा माहौल गंभीर था। बैठक कक्ष में मौत का सन्नाटा पसरा हुआ था। राजमाता और राघवनाथ ने समस्या और भविष्य में पड़ने वाले दूरगामी प्रभाव से नवरत्नों को अवगत करा दिया था। अब नवरत्नों को सुझाने थे उपायों। पूरे राजमहल में मौत का सन्नाटा था। जैसे ही महल के निवासियों को पता चला कि नवरत्नों की बैठक हो रही है, उन्हें मानो लकवा मार गया। नवरत्नों की बैठक तभी बुलाई जाती थी, जब देश किसी गंभीर संकट से गुजर रहा होता है। इस बात से भी हैरानी थी कि नवरत्नों की बैठक में भी राघवनाथ साधारण कपड़ों में ही गए थे। राजा के कपड़े पहनने में उन्हें अभी भी डर लग रहा था। ये सारे नवरत्न कबीना स्तर के मंत्री थे और सबके पास बड़े-बड़े मलाईदार विभाग थे। इसलिए ये समस्या उन सब की थी।
एक ने सुझाया-''हमें कुछ ऐसा करना चाहिए कि सर्वोच्च अदालत की नज़र ही हम पर न पड़े। न हम पर नज़र पड़ेगी, न ही वो हमारे बारे में ऐसी बातें कहेगी, जिससे लोगों के भड़कने का खतरा हो।''
राजमाता ने पूछा-''इससे बात बनेगी?''
दूसरे नवरत्न ने तत्काल कहा-'' जरूर, जब सर्वोच्च अदालत की नज़र ही नहीं पड़ेगी तो कोई समस्या ही नहीं होगी। और किसी की तो हिम्मत है नहीं कि सरकार के खिलाफ कुछ बोल सके।''
''लेकिन ये होगा कैसे?'' राघवनाथ की चिन्ता जायज थी।
'' अनुसंधान करना पड़ेगा। वैज्ञानिकों को इस काम में लगाना पड़ेगा। मैंने कल ही एक फिल्म देखी मिस्टर इंडिया? उसमें हीरो एक अंगुठी पहनता है और फिर सबकी नज़रोें से ओझल हो जाता है। वो सबको देख सकता है लेकिन उसे कोई नहीं देख पाता''
'' अगर ऐसा हो गया तो न केवल हम कानून की निगाह से बच जाएंगे बल्कि हमारा काम भी और आसान हो जाएगा। तब तो शायद कैमरे भी हमें पैसे लेते हुए नहीं पक़ड़ पाएंगे'' एक नवरत्न की ऐसी राय से सबको और ताकत मिली।
तत्काल राजा के मुख्य वैज्ञानिक सलाहकार को तलब किया गया। मुख्य वैज्ञानिक सलाहकार को देश की जरूरत से अवगत कराया गया। बताया गया कि देश को किस तरह अपने वैज्ञानिकों की इस महान सेवा की ज़रूरत है लेकिन मुख्य वैज्ञानिक सलाहकार का जवाब निराश करने वाला था। जान बख्शने की अपील करते हुए उसने बताया था कि फिल्म में जो कुछ भी दिखाया गया है, सचमुच की जिंदगी में ऐसा करना संभव नहीं है। ऐसा नहीं कि वैज्ञानिक ऐसी कोशिश नहीं कर रहे हैं लेकिन अभी तक कामयाबी नहीं मिली है।
राजमाता का गुस्सा सातवें आसमान पर था।वैज्ञानिक अनुसंधान पर सरकार इतना पैसा खर्च करती है लेकिन ये एक छोटा सा काम भी नहीं कर सकते राष्ट के लिए। मुख्य वैज्ञानिक सलाहकार को तो तत्काल बर्खास्त करने का फरमान जारी कर दिया गया। ये भी पता चला कि वो पिछली सरकार में भी इसी पद पर था। राघवनाथ नवरत्नों पर बरस पड़े। दूसरी पार्टी की सरकार का आदमी अभी तक इतने बड़े पद पर कैसे आसीन था? अगर कोई अपना आदमी होता तो कम से कम कोशिश तो करता।
जो भी हो समस्या ज्यों की त्यों बनी हुई थी। राघवनाथ ने नवरत्नों से कहा-''ये हमारी-आपकी और पूरे देश के अस्तित्व का सवाल है। आपलोग कुछ सोचिए। जल्दी सोचिए।''
नवरत्न फिर मगजमारी करने लगे। एक नवरत्न ने मन ही मन सोचा-''सत्ता में आकर भी सोचना पड़ा रहा है। दिमाग का इस्तेमाल करना पड़ रहा है। कितने अभागे हैं हम''
तभी एक आइडिया और कौंधा-''क्यों न हम सर्वोच्च अदालत की आंखें ही निकाल लें?''
जबर्दस्त आइडिया लेकिन एक नवरत्न ने कहा -''मुझे जहां तक याद आ रहा है, सर्वोच्च अदालत के बाहर कानून की जो मूर्ति लगी हुई है , उसकी आंखों पर तो पट्टी बंधी हुई है। यानी अदालत तो पहले से ही नहीं देख पाती''
''नहीं ये बात नहीं है, ये पट्टी इस बात का प्रतीक है कि कानून केवल इंसाफ करेगी। इस पट्टी के जरिए वो इस बात का संकेत देती है कि उसके सामने सभी बराबर है।''
''ये तो और खतरनाक बात है। फिर तो कानून की नज़र मेें हमारी कोई हैसियत ही नहीं है। हमें संविधान में संशोधन करना चाहिए''
राजमाता ने कहा-''कैसे निकालेंगे कानून की आंख? आप क्या सोच रहे हैं इस पर हंगामा नहीं होगा। विपक्ष चुपचाप बैठा रहेगा''
देश के स्वास्थ्य मंत्री भी नवरत्नों में शामिल थे। उन्होंने सलाह दी-''क्यों न हम इलाज के बहाने उसे ऐसी दवाएं दें, जिससे उसकी आंखों की रोशनी धीरे-धीरे चली जाय''
राघवनाथ ने कहा-''आइडिया बुरा नहीं है लेकिन कानून तो बीमार नहीं है। आखिर क्या कह कर हम कानून का इलाज शुरू करेंगे''
फिर वही तनाव। कानून की आंख फोड़ने का आइडिया जबर्दस्त था लेकिन इसे लागू करने में काफी दिक्कतें थीं। लोकतंत्र में कानून को अंधा करना इतना आसान भी नहीं था। अब राजा को ही नहीं, नवरत्नों को भी लगने लगा था कि सबसे बड़ी बीमारी लोकतंत्र ही है। तो क्या आखिर एक दिन सबको लैंपपोस्ट पर लटका दिया जाएगा? क्या देश की सेवा करने के लिए कोई नहीं बचेगा? ये सवाल अब नवरत्नों को सालने लगा था।राजमाता परेशान थीं तो राघवनाथ अभी तक डरा हुआ था। लेकिन राजमाता तो राजमाता थी।उन्होंने इसका हल ढूंढ ही निकाला। उन्होंने कहा-''मैंने इस समस्या का समाधान ढूंढ लिया है।''
सब खुशी से उछल पड़े। बाकी किसी की हिम्मत तो नहीं पड़ी लेकिन राघवनाथ ने पूछ ही लिया कि क्या समाधान ढूंढा है उन्होंने। राजमाता ने कहा-अभी वो इसका खुलासा नहीं करेंगी। सर्वदलीय बैठक बुलाओ। सर्वदलीय बैठक में सब मिलकर इसे अपनी मंजूरी देंगे। सभी चकरा गए लेकिन राजमाता के आदेश पर सवाल नहीं किया जा सकता था। दूसरे दिन सर्वदलीय बैठक बुलाई गई। अचानक बैठक बुलाए जाने से विरोधी दल भी हैरान थे। राजमाता और राजा तो किसी भी मामले में कभी उन्हें इतनी अहमियत नहीं देते थे। देश के किसी भी फ़ैसले में उन्हें विश्वास में नहीं लिया जाता था लेकिन आज अचानक क्या हो गया। हैरान परेशान सभी विरोधी नेता बैठक में पहुंच गए थे। मीडिया को भी भनक लग गई थी। टेलीविजन वाले कैमरा लिए बैठक कक्ष के बाहर मौजूद थे लेकिन किसी को भी बैठक का एजेंडा मालूम ही नहीं था तो फिर कोई कहता क्या? अटकलों का बाज़ार गर्म था।
बैठक तय समय पर ही शुरू हुई थी। राजमाता ने खुद अखबार पढ़ कर सुनाया और विरोधी दलों को सर्वोच्च अदालत की राय से वाकिफ़ कराया। ख़बर तो सबने पढ़ी थी लेकिन इतनी गहराई से इस पर विचार नहीं किया था, जितना राजमाता और राजा राघवनाथ ने किया था। जब राजमाता ने सबको उनका भविष्य बताया तो सबको सांप सूंघ गया। राजमाता ने कहा-ये हमारी या आपकी समस्या नहीं है। ये पूरे देश की समस्या है और इसलिए हम चाहते हैं कि फैसला भी मिल बैठकर एक साथ किया जाय।
राजमाता की इस राय से सभी ने इत्तफाक जताई। राजमाता ने कहा-हमने कई हल ढूंढे लेकिन कुछ भी समझ में नहीं आया। आखिरकार हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि देश में कोई लैंपपोस्ट रहने ही नहीं दिया जाय। सारे लैंप पोस्ट तुड़वा दिए जायं। बस मुझे तो यही एक हल दिख रहा है, आप लोगों का क्या कहना है?
विरोधियों को भी समाधान भा गया लेकिन आशंका भी थी। इससे तो पूरा देश अंधेरे में डूब जाएगा।क्या जनता मानेगी?
राजमाता ने समझाया-इसीलिए तो आपलोगों को बुलाया है। अगर हम सब मिलकर जनता को समझाएं कि रोशनी से ज्यादा अहम राजा है तो जनता मान जाएगी। जनता को बरगलाना तो हमारे-आपके बाएं हाथ का काम है।बस अगर ये काम हम मिलकर करें तो किसी को संदेह नहीं होगा।
बैठक में राजमाता की जय-जयकार होने लगी।
Tuesday, November 30, 2010
पासवर्ड के बिना जिंदगी
सत्येंद्र प्रसाद श्रीवास्तव
हवा का एक ऐसा झोंका जो पूरे शरीर में सिहरन पैदा कर देता है। लेकिन ये सिहरन मन को नहीं छू पाई। ठंडी हवा का झोंका शरीर को छूकर निकल गई। मन तक वो पहुंच ही नहीं पाई। शायद इसमें हवा का दोष नहीं। मन ने ही सारे दरवाजे बंद कर दिये हैं। उन दरवाजों को खोलने का पासवर्ड हवा के पास नहीं है।
एक ऐसी दुनिया में हम जी रहे हैं, जहां हर चीज के लिए पासवर्ड चाहिए। जिसके पास पासवर्ड नहीं, वो इस दुनिया में मिसफिट है। शायद वो भी मिसफिट है। उसके पास उसका अपना पासवर्ड भी नहीं है। वो ऊपर से जैसा है, अन्दर से भी वैसा ही है। सब कुछ पारदर्शी. पासवर्ड की कोई जरूरत नहीं लेकिन वक्त के साथ उसे बदलना पड़ा। उसके मन तक पहुंचने के लिए अब एक पासवर्ड चाहिए था। पासवर्ड वो भी नहीं जानता। पासवर्ड है। जब मन लॉक है तो पासवर्ड जरूर है, होना भी चाहिए लेकिन जिसके पास ये पासवर्ड है, वो न जाने कहां है। पासवर्ड सेट किया और गायब। उसने खोजने की कोशिश भी तो नहीं की। तब से लॉक है मन का दरवाजा।
उसे पासवर्ड की ये दुनिया अच्छी नहीं लगती। बचपन में लौट जाना चाहता है। जहां सिर्फ और सिर्फ बचपना था। सब कुछ सीधा सरल। कोई सीक्रेट नहीं, इसलिए कोई पासवर्ड नहीं। पासवर्ड तो तब चाहिए होता है, जब कुछ छिपाना होता है लेकिन बचपन में छिपाने लायक क्या था। शायद बचपन अब इसलिए भी ज्यादा अहम हो गया था, उसके लिए क्योंकि बचपन में उसके पास कोई सीक्रेट नहीं था। ऐसा कुछ नहीं था, जिसे किसी को बताने में शर्म महसूस हो। इसलिए सबकुछ खुला हुआ था। उन्मुक्त था। उन्मुक्त था, इसलिए उसमें ताज़गी थी। कही कुछ सड़ा हुआ नहीं था। जिंदगी का कोई भी पहलू किसी बटर की तरह बदबू नहीं मार रहा था। इसलिए वो लौट जाना चाहता है पीछे की ओर लेकिन उसके लिए भी अब चाहिए पासवर्ड।
कैसे जिये वो इस ज़माने में, जहां कदम-कदम पर चाहिए पासवर्ड। इसलिए वो फेल है। यहां से वहां भागता रहता है लेकिन नहीं मिलती शांति, नहीं मिलता सकून। घऱ आता है, टेलीविजन के सामने बैठता है। वहां भी हंगामा। बिग बॉस में झगड़ते लोग। सामने प्यार में जान कुर्बान करने की बात, पीछे पीठे जड़ से काटने की बात। बिग बॉस दुनिया का असली चरित्र दिखाता है। एक छोटे से घर में चंद लोगों को बंद कर दुनिया को बताया जा रहा कि देखो तुम ऐसे ही हो। गंदे, अश्लील, चरित्रहीन, चुगलखोर, दूसरों के सुख से जलने वाले, भोग विलास में मतवाले, भोजन के लिए जानवरों की तरह लड़ने वाले। दूसरे को गिराकर उसकी कीमत पर आगे निकल जाने वाले। दुनिया का असली चरित्रा।
सोचता है, हंस ले। कॉमेडी देखना चाहता है लेकिन वहां हंसाने के लिए ताजा कुछ नहीं है। सबकुछ अश्लील। दूसरों का मजाक उड़ाकर उन्हें नीचा दिखाकर दुनिया को हंसाने की कोशिश। दूसरों को नीचा दिखाने में हंसी आती है, अच्छी हंसी आती है। खबर देखना चाहता, सर्कस दिखने लगता है। भागना चाहता है, भाग जाता है वो। उसके लिविंग रूम में दम तोड़ देता है टेलीविजन। वो भी लिविंग रूम में दम तोड़ रहा है। पता नहीं आधुनिक जमाने ने लिविंग रूम नामकरण क्या सोच कर किया है। वो तो लिविंग रूम में भी खुद को लिविंग महसूस नहीं करता। उसके लिए सब रूम एक जैसा है। जहरीला, घुटन भरा।
लेकिन क्या जिंदगी इतनी बुरी, इतनी घुटन भरी, इतनी घटिया है? शायद नहीं। वो जानता है कि जिंदगी ऐसी नहीं है। फिर वो क्यों हार गया है। क्या एक पासवर्ड गुम हो जाने से जिंदगी ऐसे बदल जाती है। पासवर्ड रिसेट भी तो किया जा सकता है। वो भूल जाएगा पासवर्ड चुराकर ले जाने वाली को। जिंदगी को वो अपना नया अर्थ देगा। कुछ भी बंद नहीं रहेगा। सब कुछ खुला रहेगा, बचपन की तरह। उसकी जिंदगी में कोई पासवर्ड नहीं होगा। हर पासवर्ड का ताला वो तोड़ देगा। वो इस जमाने में भी बिना पासवर्ड के जियेगा। उसने तय कर लिया, वो अपनी जिंदगी को फॉर्मेट करेगा। उन सारे वायरस को खत्म कर देगा, जिन्होंने उसे तबाह कर रखा है।
तय हो गया और उसके साथ ही उसके मन ने महसूस की ठंडी हवा की सिहरन। अब उसे सब कुछ ताजा लग रहा था।
Thursday, September 25, 2008
समीर लाल की कहानी--आखिर बेटा हूं तेरा
सरौता बाई नाम था उसका. सुबह सुबह ६ बजे आकर कुंडी खटखटाती थी. तब से उसका जो दिन शुरु होता कि ६ घर निपटाते शाम के ६ बजते. कपड़ा, भाडू, पौंछा, बरतन और कभी कभी मालकिनों की मालिश. बात कम ही करती थी.पता चला कि उसका पति शराब पी पी कर मर गया कुछ साल पहले.